Ghalib और हिंदुओं की मोक्ष स्थली बनारस का एक पाक रिश्ता – ‘बनारस काबा- ए – हिंदोस्तान’
मिर्जा Ghalib हमारे देश के उन बेशकिमती नगीनों में से हैं, जिनको गए हुए सदियां बीत गई मगर आज भी उनकी शायरी, नज्में, गजलें, आदि को जब भी हम कहीं सुनते या पढ़ते हैं तो मानो लगता है कि खुद गालिब साहब ने अपनी महफिल बैठा ली है। उनका लिखा हर लफज उनके होने का आज तक एहसास दिला जाता है। उन्हें मैं एक कवि कहूं, शायर कहूं, गजलों के फनकार कहूं, एक दार्शनिक कहूं या फिर एक ऐसे शख्स कहूं जिनकी नजरों में दुनियों को देखने का एक अलग ही नजरिया था और उनके दिमाग में एक अलग ही दुनिया की तस्वीर बनी हुई थी, जो हर खासोआम व्यक्ति की जिंदगी के पन्नों के ईदगिर्द घूमती है।
मिर्जा गालिब पर यूं तो देश दुनिया के लेखकों ने बहुत कुछ लिखा है। आज तक कई लेखकों ने उनकी असल जिंदगी को करीब से जानने और समझने की कोशिश की है और हर शख्स उनकी जिंदगी को अलग तरह से देखते हैं। मैं भी उनकी दार्शनिक सोच की मुरीद हूं और शब्दों की उस दुनिया में मेरा भी बहुत छोटा सा मुकाम है। बस उसी के जरिए मैंने भी उन्हें और करीब से जानने की कोशिश की।
Ghalib साहब और बनारस का एक पाक रिश्ता था। या यूं कहें कि वो तो चले गए मगर आज तक उनकी रूह वही बनारस के घाटों, वहां की तंग गलियों, मंदिर के घंटों में आज तक जिंदा है। बनारस के कण-कण से गालिब को बेइंतहा मोहब्बत थी। इसलिए उन्होंने अपनी फारसी मसनवी चिराग-ए-दैर में बनारस की सभ्य संस्कृति को देखते हुए इसे काबा-ए-हिंदोस्तान का दर्जा दिया।
बनारस वैसे तो हिंदुओं की मोक्ष स्थली है। मगर गालिब इकलौते शायर हैं, जिन्होंने इस धर्मस्थल को हिन्दोस्तान का मक्का कहकर सम्बोधित किया। यूं तो गालिब ने कुल 11 मसनवियां लिखी हैं, जिसमें से चिराग-ए-दैर को काफी शौहरत हासिल हुई। मैंने अपनी फिल्म काबा-ए-हिंदोस्तान में गालिब की नजरों से बनारस की खुबसूरती को, बनारस की संस्कृति को, बनारस की आध्यात्मिक शक्ति को बड़े ही संजीदा रूप से दिखाने की पूरी कोशिश की है।
मिर्जा गालिब क्या थे
जैसे कि हम सब जानते हैं कि Ghalib साहब का पूरा नाम मिर्जा अस्दुउल्लाखां उर्फ मिर्जा नौशा, तक्लुस गालिब था। उनकी कौम तुर्कसल्जुकी थी, और उनकी पैदाईश 1797, दिसंबर में आगरा शहर में हुई थी। मिर्जा गालिब को बचपन में प्यार से मिर्जा नौशा भी पुकारते थे। गालिब नाम उन्हें बाद में मिला। महज पांच साल की ही उम्र में उनके वालिद का इंतकाल 1803 में अलवर की लड़ाई के दौरान हो गया। वालिद का साया हमेशा के लिए उनके सिर से उठ गया था, ऐसे में उनके चचा नस्सुरूल्लाहबेग खां ने उनकी परवरिश का जिम्मा लिया पर कुछ सालों के बाद वो भी अल्लाह को नसीब हो गए। बाद में मिर्जा की परवरिश उनके नाना ने की।
जब गालिब 13 साल के हुए तो उनका निकाह उमराउ बेगम से हो गया। अपने इस रिश्तें में उन्होंने सात औलादों को जन्म दिया, मगर सभी का कम उम्र में इंतकाल हो गया। जिसका गम उन्हें और उनकी बेगम को ताउम्र रहा फिर भी वे हमेशा खुशमिजाजी में गम को छुपा लेते थे। ठीक वे अपनी बेगम से पूरी उम्र प्यार करते रहे। शादी के बाद ही उन्होंने दिल्ली का रूख किया और दिल्ली आकर बस गए। Ghalib ने दिल्ली के चांदनी चैक के बल्लीमारान, गली कासिम जान में अपनी बेगम के साथ जिंदगी के अहम दिन गुजारे।
गालिब घर से ही शेरो-शायरी के जरिए अपनी गुजर-बसर चलाते थे, जिसमें पेंशन ही उनकी गुजर-बसर का अहम हिस्सा थी और पेंशन की वजह से ही उन्हें दिल्ली से कलकत्ते का सफर करना पड़ा, उसी सफर के शुरूआती दौर में वे बांदा, चिल्लातारा, मोड़ होते हुए बिमारी की हालत में बनारस पहुंचे। वही उन्होंने फारसी मसनवी चिराग-ए-दैर को लिखा। बहादुरशाह जफर ने गालिब को उनकी तैमूरी नस्ल के इतिहास को लिखने के लिए कहा। जो दो भागो में लिखी गई थी, पहली महर-ए-निमरोज और माह-ए-नीममाह थी। उन्हें नजमुदौला, दब्बीरूमुलल्ख और निजामेजंग जैसे खिताबों से नवाजा गया। गालिब ने 1857 में दिल्ली का गदर अपनी आंखों से देखा। खराब हालातों में घर बैठे ही उन्होंने एक दस्तम्बू लिखी। जिसमें उन्होंने दिल्ली के गदर का आंखों देखा हाल बयां किया था।
उस समय तक Ghalib के कई शार्गिद भी बन चुके थे, जिसमें ख्वाजा अल्ताफ हुसैन हॉली ने गालिब के साथ काफी लंबा समय गुजारा। 15 फरवरी सन् 1869 को नज्मों और कलामों का सरताज ब्रेन हैमरेज की वजह से हमेशा के लिए इस जहान से रूकसत हो गए। जिस दिन उनका इंतकाल हुआ वह दिन उस सदी का व हमारे देश के लिए अंधकार का दिन था।
अल्लाह को न मानने वाले, कभी मस्जिद की सीढ़ियां न चढ़ने वाले ऐसे सूफी को अल्लाह की पनाह मिली। उर्दू और फारसी अदब के अजीम शायर गालिब को हजरत निजामुद्दीन की दरगाह के पास चैसट खम्बा के पास लौहारू खानदान के कब्रिस्तान में दफनाया गया। आज भी लोग जब हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह जाते हैं, तो मिर्जा गालिब की मजार पर जरूर फूल चढ़ाते हैं। गालिब मर कर भी आज तक हमारे अंदर जिंदा हैं, आज भी उनकी मौजूदगी जिंदा है।
क्या है फिल्म बनारस काबा-ए-हिंदोस्तान
फिल्म बनारस काबा-ए-हिंदोस्तान मेरे दिल के बहुत करीब है। क्योंकि मिर्जा नौशा उर्फ Ghalib की फारसी मसनवी चिराग-ए-दैर और बनारस की खूबसूरती यहां की संस्कृति, यहां की करिश्माई रंगत को देखने और महसूस करने दूर-दूर से लोग यहां आते हैं। बनारस आज विश्वप्रसिद्ध शहर है, ये एक ऐसा शहर है जो यहां एकबार आता है बस यही का होकर रह जाता है। जब वह बिमारी की हालत में बनारस के घाट पर उतरे तो बनारस की रौनक, रंगत, घाटों की चहल-पहल और स्वच्छ आबो-हवा को महसूस कर उनकी आधी बिमारी तो वही ठीक हो गई थी। जिससे वह बनारस के आशिक ही हो गए।
बनारस शिव की नगरी है यहां के कंकड़ में भी शंकर बसते हैं और यहां का हर इंसान शिवमयी होकर घूमता दिखाई देता है। इस फिल्म में गालिब की नजरों से बनारस को दिखाया गया है। गालिब के बनारस के प्रति प्रेम यहां की संस्कृति के प्रति आदर-भाव उनकी फारसी मसनवी चिराग-ए-दैर में बखूबी देखने को मिलता है। बनारस को गालिब की नजरों से दिखाने के लिए सही तथ्यों और दस्तावेजों का उपयोग किया गया है। उनकी नजरों में बनारस हिंदोस्तान का काबा था। उन्होंने झिलमिलाती गंगा को सूर्य की रोशनी में महसूस किया और ये सब अपनी फारसी मसनवी चिराग-ए-दैर में लिखा।
Ghalib को इस कदर बनारस से मोहब्बत हो गई थी कि उन्होंने वही अपनी फारसी मसनवी चिराग-ए-दैर को लिखा जिसका मतलब मंदिर का दीप होता है उन्होंने अपनी मसनवी में बनारस के घाटों, लाला के फूल, भंवरों की गुनगुनाहट, वहां की तंग गलियों, मंदिर की आरती आदि को अपनी फारसी मसनवी में लिखा जो उन्होंने बनारस आकर महसूस किया था। गालिब ने अपनी फारसी मसनवी चिराग-ए-दैर में लिखा कि अगर उनके पैरांे में मजहब की जंजीरें न होती, तो मैं अपनी तज्वी तोड़ कर जनेउ धारण कर लेता। माथे पर तिलक लगा लेता और गंगा के किनारे उस वक्त तक बैठा रहूँगा जब तक मेरा इरफानी जिस्म एक बूंद बनकर गंगा में पूरी तरह समा ना जाए। इस तरह की बात वही शख्स बोल सकता है जिसे हिंदोस्तानी की सभ्यता से प्यार हो।
Film Director Beenu Rajpoot with Tom Alter
गालिब की चिराग-ए-दैर मसनवी उनकी हिंदोस्तान से मोहब्बत और हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक है। मिर्जा गालिब ने अपनी हर सांस में बनारस को जिया था और उनके इसी प्यार को देख कर फिल्म काबा-ए-हिंदोस्तान को बनाने का मेरा मन हुआ। आज के दौर में इस तरह की मसनवी को पढ़ने की, समझने की और उस पर विचारविर्मश करने की पूरी जरूरत है।
फिल्म का क्या उद्देश्य है।
यूं तो आज भी बनारस पर कितनी कहानियां लिखी जा रही हैं, कितनी ही फिल्में और वितृचित्र इस पर बन चुके हैं। मगर आज तक शायद कम ही लोग जान पाए कि एक मुसलमान शायर ने अपने जीवन की इतनी व्ख्यात मसनवी को बनारस से प्रभावित होकर लिखा। बनारस की हर छोटी से छोटी चीज को, वहां के योगी, अघोरी, साधू-सन्यासी, मंदिरों, घाटों, घंटे-घड़ियालों, यहां की तहजीब को देख कर Ghalib ने उसे हिंदोस्तान का काबा कहा। उन्होंने बनारस को मक्का जैसी पाक जगह के नाम से सम्बोधित किया। गालिब एक शायर तो थे ही मगर उनके अंदर सूफियत ही सूफियत भरी हुई थी । जब मैंने चिराग-ए-दैर मसनवी को पढ़ा और समझा तो मेरे मन में ये जिज्ञासा जाग गई कि एक महान शायर की बेपाक सोच को दुनिया के सामने लाना चाहिए और इसीलिए मैंने काबा-ए-हिंदोस्तान फिल्म बनाई जिसमें गालिब की नजरों से बनारस को दिखाया। इस फिल्म के जरिए मैं अपने अजीज शायर को श्रद्धांजलि दे सकूं।
फिल्म बनाने में क्या-क्या मुश्किलें आई
मिर्जा नौशा की भाषा फारसी और उर्दू थी। तो उन्होंने अपनी जितनी भी कृतियां लिखी वे सब इसी भाषा में लिखी हुई है। जब मैंने इस फिल्म को बनाना शुरू किया तो भाषा सबसे बड़ा मुद्दा थी क्योंकि मुझे फारसी न पढ़नी आती है और न लिखनी। जब आप ऐसे विषय पर फिल्म बना रहे होते हैं जिसकी भाषा हमें समझ न आती हो तो मुश्किलें और ज्यादा बढ़ जाती हैं। ऐसे में मेरे दोस्तों ने इसमें मेरी मदद की जिन्हें गालिब के साहित्य के बारे में बारीकी से पता था। जिनमें दिल्ली विश्वविद्यालय के फारसी के असीसटैंट प्रोफेसर कैफी मुजफर बई, असीसटैंट प्रोफेसर अकबर अली शाह और एचओडी परशियन डिपार्टमेंट के प्रोफेसर शेखर चंद्रा जैसी नामी गिरामी हस्तियों की मैं शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने गालिब के साहित्य पर बहुत बारीकी से तथ्य दिए।
बनारस के बीएयू के प्रोफेसर वसीम हैदर की मैं बेहद शुक्रगुजार हूँ। उन्होंने मेरा हर मोड़ पर पूरा साथ दिया। प्रोफेसर हैदर द्वारा ही फिल्म की स्क्रिप्ट फिल्माई गयी है। फिल्म के शोध कार्य में, गालिब इंस्टीट्यूट, दिल्ली, आईसीसीआर, दिल्ली और रजा रामपुर लाईब्रेरी ने हमारी काफी मदद की। फिल्म के दौरान बनारस वालों ने भी हमारी हर तरह से पूरी -पूरी मदद की, अगर कहे कि बनारस में आज भी अपनी तहजीब और अदब कायम है तो बिल्कुल ठीक होगा। बनारस जहां शिवमयी है, वही उसकी अपनी संस्कृति और एक अलग तहजीब है जो आज तक वैसी की वैसी ही बनी हुई है। इसके अलावा जो सबसे बड़ी मुश्किल हमारे सामने आई वह फिल्म की फन्डिंग की थी, हमने कई संस्थानों के दरवाजे खटखटाए पर किसी ने हमें आर्थिक रूप से कोई मदद नहीं दी।
Charagh – E – Dair Masnavi by Mirza Ghalib
मुझे इन सभी बड़े-बड़े संस्थानों के ऐसे व्यवहार से काफी दुख हुआ कि कोई आज Ghalib के लिए कुछ नहीं करना चाहता, संस्थानों के अलावा मुझे और मेरी पूरी टीम को जब और बहुत बड़ा झटका लगा, जब बाॅलीवुड की जानी मानी हस्ती जिन्हें उनके बारे में बहुत तर्जुबा था उन तक ने इस फिल्म में हमारा साथ नहीें दिया। जब हमने उन से फिल्म के लिए मदद मांगी तो उन्होंने हमें आश्वासन दिया कि वह गालिब से जुड़े कुछ अपने अनुभव हमारे साथ साझा करेंगे, पर समय पर हमारी पूरी टीम जब उनके घर पहुंची तो वह बिना कुछ बताए दिल्ली आ गये। इस घटना से हम सभी आहत हुए कि जब देना ही नहीं था, तो क्यों हमारा समय बर्बाद किया। अतः हमने फिर मिलजुल कर ही इस फिल्म की रिसर्च और फन्डिंग की और फिल्म को पूरा किया।
गालिब को ही क्यों चुना
गालिब को चुनना मेरे लिए इसलिए जरूरी था कि एक तो मैं उनकी शायरी को बेहद पसंद करती हूं और काफी समय से मैंने उनके साहित्य को भी पढ़ा है। पढ़ने के बाद मुझे ये एहसास हुआ कि गालिब के बारे में आज की पीढ़ी को कुछ खासा नहीं पता और न उनके साहित्य के बारे में उन्हें कुछ समझ है। मिर्जा नौशा की फारसी मसनवी चिराग-ए-दैर एक ऐसी मिसाल है जो मजहबी अकीदों से बहुत परे थी। जिसमें गालिब की दूरदर्शित साफ झलकती है, और हमें ये समझ आता है कि वह केवल इंसानियत की पूजा करते थे, उनके लिए र्सिफ एक धर्म था इंसानियत धर्म। चिराग-ए- दैर एक मिसाल है हिंदू और मुसलमान की एकता की। वह एक धर्म को ही मानते थे जिसे इंसानियत कहते है। आज के माहौल को देखते हुए उनकी सोच आज तक सटीक बैठती है। Ghalib की दीवाने-ए-गालिब, मुजमुयां खतुत्त, उर्दू मोयला और उनके पूरे उर्दू-अदब आज भी हमारे दिलों में जिंदा हैं।
Film Director Beenu Rajpoot
गालिब एक ऐसी शख्सियत जिन्हें अल्लाह ने नूर के साथ लेखकी का हुनर जन्म से ही दिया था। अगर उनकी दूरदर्शित की बात कहें तो लगता है कि वो भविष्य को देख लेते थे और अपनी शायरी में उसे पूरी तरह ढाल लेते थे। वही वह इतने मस्तमौला इंसान थे कि उन्हें घर पर ही दोस्तों की महफिले करना बेहद भाता था। उनकी महफिलों में शायरी के दौर चला करते थे और वे बैठे-बैठे ही नज्म गढ़ दिया करते थे। उनकी एक खासियत ये रही कि उन्होंने कभी धर्म, मजहब जैसी अकीदों को मना ही नहीं और जो लिखा वो सबके लिए लिखा। गालिब में वो सूफियत थी जिसकी वजह से वे अच्छे शायर होने के साथ सबके हमराज दोस्त बन जाया करते थे, जबकि उन्हें खुद घर से बाहर जाना ज्यादा पसंद नहीं था। Ghalib को जितना जानना चाहा उनके बारे में और जानने उन्हें समझने की मेरी जिज्ञासा दिन ब दिन बड़ी ही। आज के इस युग में भी मुझे गालिब की कमी अखरती है।
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Renowned film Producer and Director and Founder of BEENU RAJPOOT FILMS, Delhi. She strongly feels that ‘Movies touch our hearts and awaken our vision, and change the way we see things. They take us to other places, they open doors and minds. Movies are the memories of our lifetime, we need to keep them alive’.