भगवान् के पृथ्वी पर भौतिक Avatar और संक्षिप्त युग चक्र
भौतिक अवतारों की संख्या २४ या १० गिनी जाती है। भास्कराचार्य ने गणित ग्रन्थ लीलावती में २४ अवतारों की गणना की है। भगवान के ४ हाथों में ४ आयुध शंख, चक्र, गदा, पद्म कितने प्रकार से रखे जा सकते हैं। शंख किसी भी हाथ में ४ प्रकार से रखा जा सकता है। उसके बाद बचे ३ हाथों में ३ प्रकार से चक्र रख सकते हैं। बचे २ हाथों में २ प्रकार से गदा रखते हैं। अन्तिम हाथ में पद्म रहेगा। अतः कुल प्रकार ४ x ३ x २ x १ = २४ हैं। अन्य विधि है कि हाथों में सजाना नहीं केवल चुनना है। सभी ४ हाथ १ प्रकार से ले सकते हैं। ३ हाथ ३ प्रकार से (कखग, कगघ, खगघ), २ हाथ ६ प्रकार से (कख, कग, कघ, खग, खघ, गघ)-कुल १० प्रकार से मिश्रण हो सकता है। एक अन्य विचार है कि ३ गुणों से सृष्टि होती है, या भगवान् को हम ३ प्रकार से अनुभव करते हैं-ज्ञान (जगन्नाथ), बल (बलराम), क्रिया (सुभद्रा)-
न तस्य कार्यं करणं न विद्यते, न तत्समक्षाभ्यधिकं च दृश्यते।
पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च॥
(श्वेताश्वतर उपनिषद्, ६/८)
तीन चीजों (क, ख, ग) का संकलन १० प्रकार से होगा-एक एक कर-३ प्रकार से, तीनों एक साथ १ प्रकार। ६ प्रकार से २-२ का समन्वय, जो अधिक प्रभावी हो उसे पहले लिखते हैं-कख, खक, कग, गक, खग, गख।१० मुख्य अवतारों का वर्णन जयदेव ने भी किया है, पर उन्होंने कृष्ण को अवतार नहीं, अवतारी माना है। उनके बदले बलराम को Avatar कहा है (जयदेव का दशावतार स्तोत्र)।
अवतारों का कालक्रम पुराणों में सूक्ष्मता से दिया गया है। पुराण और वेदों में ७ प्रकार के योजन और ७ प्रकार के युग हैं-सप्त युञ्जन्ति रथमेक चक्रो एको अश्वो वहति सप्तनामा (ऋग्वेद १/१६४/२)। इतिहास के लिये मुख्य युग २४,००० वर्षों का है, जो वास्तविक रूप में जल-प्रलय और शीत युग का भी चक्र है। आधुनिक मिलांकोविच सिद्धान्त (१९२३) के अनुसार यह पृथ्वी की मन्दोच्च (कक्षा का दूर विन्दु) की १ लाख वर्ष में गति तथा विपरीत दिशा में पृथ्वी अक्ष का शंकु आकार में २६००० वर्ष चक्र का संयुक्त प्रभाव है। इसके अनुसार यह २१६०० वर्ष का होना चाहिये-१/२६००० + १/१००००० = १/२१६००। पर वास्तव में यह २४००० वर्षों का होता है जैसा भूगर्भीय अनुमानों से प्रमाणित है। अतः भारत में मन्दोच्च का दीर्घकालिक चक्र ३१२,००० वर्षों का लिया गया था-१/२६००० + १/३१२००० = १/२४०००।
ब्रह्माण्ड पुराण में २६००० वर्षों का ऐतिहासिक मन्वन्तर कहा गया है जो पृथ्वी के अक्ष का शंकु आकार में परिभ्रमण काल है। यह स्वायम्भुव मनु से वेदव्यास (३१०२ ई.पू. में कलि आरम्भ) तक का काल है, जिसमें ७१ युग थे। सभी युग प्रायः ३६० वर्ष के होंगे जिनको दिव्य वर्ष भी कहा गया है। मत्स्य पुराण के अनुसार स्वायम्भुव मनु से वैवस्वत मनु तक ४३ युग तथा उसके बाद २८ युग हुए थे। २८वें युग में वेदव्यास के बाद और कोई व्यास नहीं हुआ, अतः अभी भी हम २८वां युग ही मानते हैं। एक अन्य गणना २४,००० वर्षों के युग की है जिसे ब्रह्माब्द भी कहा गया है, जिसका अभी तीसरा दिन चल रहा है। इसमें पहले १२००० वर्षों का अवरोही क्रम (अवसर्पिणी युग) होता है जिसमें सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि क्रमशः ४८००, ३६००, २४००, १२०० वर्षों के होते हैं। इसी चक्र में ब्रह्मगुप्त तथा भास्कराचार्य ने बीज संस्कार का चक्र कहा है तथा उसे आगम प्राप्त कहा है। इसके बाद १२००० वर्षों का उत्सर्पिणी काल है जिसमें विपरीत क्रम से उतने ही मान के कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य युग आते हैं। यह क्रम वैवस्वत मनु से आरम्भ हुआ, अतः स्वायम्भुव मनु आद्य त्रेता में हुए, उनसे सत्ययुग का आरम्भ नहीं हुआ।
षड् विंशति सहस्राणि वर्षाणि मानुषाणि तु ।
वर्षाणां युगं ज्ञेयं दिव्यो ह्येष विधिः स्मृतः॥
(ब्रह्माण्ड पुराण,१/२/२९/१९)
स वै स्वायम्भुवः पूर्वं पुरुषो मनुरुच्यते। तस्यैकसप्तति युगं मन्वन्तरमिहोच्यते॥ (ब्रह्माण्ड पुराण,१/ २/९/३६,३७)
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९)-चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां च कृत युगम्। तस्य तावच्छती सन्ध्या सन्ध्यांशः सन्ध्यया समः॥२५॥
इतरेषु ससन्ध्येषु ससन्ध्यांशेषु च त्रिषु।
एकन्यायेन वर्तन्ते सहस्राणि शतानि च॥२६॥
त्रीणि द्वे च सहस्राणि त्रेता द्वापरयोः क्रमात्।
त्रिशती द्विशती सन्ध्ये सन्ध्यांशौ चापि तत् समौ॥२७॥
कलिं वर्ष सहस्रं तु युगमाहुर्द्विजोत्तमाः।
तस्यैकशतिका सन्ध्या सन्ध्यांशः सन्ध्यया समः॥२८॥
मत्स्य पुराण, अध्याय २७३-अष्टाविंश समाख्याता गता वैवस्वतेऽन्तरे। एते देवगणैः सार्धं शिष्टा ये तान्निबोधत॥७७॥
चत्वारिंशत् त्रयश्चैव भवितास्ते महात्मनः (स्वायम्भुवः)।
अवशिष्टा युगाख्यास्ते ततो वैवस्वतो ह्ययम् ॥७८॥
भविष्य पुराण प्रतिसर्ग पर्व १/१-
प्रथमेऽब्देह्नि तृतीये प्राप्ते वैवस्वतेऽन्तरे ॥१॥
कल्पाख्ये श्वेतवाराहे ब्रह्माब्दस्य दिनत्रये॥३॥
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व (१/४/१६,२६)-आदमो नाम पुरुषो पत्नी हव्यवती तथा। … षोडशाब्द सहस्रे च तदा द्वापरे युगे।
या ओ॑षधीः॒ पूर्वा जा॒ता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा ।
(ऋक् १०/९७/३, वा. यजु १२/७५, तैत्तिरीय संहिता ४/२/६/१, निरुक्त ९/२८)
आर्यभटीय, कालक्रिया पाद-
उत्सर्पिणी युगार्धं पश्चादपसर्पिणी युगार्धं च।
मध्ये युगस्य सुषमाऽऽदावन्ते दुष्षमेन्दूच्चात्॥९॥
वैवस्वत मनु से कलि आरम्भ तक सत्य ४८०० + त्रेता ३६०० + द्वापर २४०० = १०,८०० वर्ष बीत चुके थे। इसमें ३६० वर्षों के ३० युग होंगे। जल प्रलय ५००-१००० वर्ष प्रभावी रहा। इसमें २ युग = ७२० वर्ष लेने पर बाकी २८ युग बचे। स्वायम्भुव से वैवस्वत तक (२६०००-१०८०० = १५२०० वर्ष थे। इसमें ४३ युग प्रायः ३५३.५ वर्ष के होंगे। देवों और असुरों में १० युग = ३६० x १० = ३६०० वर्षों तक मैत्री थी। तब असुरों का प्रभुत्व था। यह कश्यप से वैवस्वत काल तक था जिसके बाद मनुष्यों का प्रभुत्व आरम्भ हुआ। कलियुग आरम्भ ३१०२ ई.पू. से १०८०० वर्ष पूर्व १३९०२ ई.पू. वैवस्वत मनु का काल हुआ। उससे ३६०० वर्ष पूर्व प्रायः १७,५०० ई.पू. कश्यप काल हुआ। महाभारत, उद्योग पर्व (२३०/८-१०) में कार्त्तिकेय काल दिया है। उस समय अभिजित् नक्षत्र का पतन हुआ तथा उसके बदले धनिष्ठा नक्षत्र से वर्ष आरम्भ हुआ। अभिजित् का पतन अर्थात् उससे पृथ्वी अक्ष की उत्तरी दिशा १६००० ई.पू. में हटने लगी। उसके निकट धनिष्ठा नक्षत्र में वर्षा होती थी, उससे सम्वत्सर शुरु होने के कारण सम्वत् को वर्ष कहा गया। १५८०० ई.पू. में धनिष्ठा नक्षत्र में वर्षा होती थी, यह कार्त्तिकेय काल है।
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/७२)-सख्यमासीत्परं तेषां देवनामसुरैः सह।
युगाख्या दश सम्पूर्णा ह्यासीदव्याहतं जगत्॥६९॥
दैत्य संस्थमिदं सर्वमासीद्दशयुगं किल॥९२॥
अशपत्तु ततः शुक्रो राष्ट्रं दश युगं पुनः॥९३॥
युगाख्या दश सम्पूर्णा देवापाक्रम्यमूर्धनि।
तावन्तमेव कालं वै ब्रह्मा राज्यमभाषत ॥
वायु पुराण ( ९८/५१)-दैत्यासुरं ततस्तस्मिन् वर्तमाने शतं समाः॥६२॥
प्रह्लादस्य निदेशे तु येऽसुरानव्यवस्थिताः॥७०॥
धर्मान्नारायणस्तस्मात्सम्भूतश्चाक्षुषेऽन्तरे॥७१॥
यज्ञं प्रवर्तयामास चैत्ये वैवस्वतेऽन्तरे।
चतुर्थ्यां तु युगाख्यायान्नापन्नेष्वसुरेष्वभू॥७२॥
सम्भूतः ससमुद्रान्तहिरण्यकशिपोर्वधे।
द्वितीयो नारसिंहोऽभूद्रुदः सुर पुरःसरः॥७३॥
बलिसंस्थेषु लोकेषु त्रेतायां सप्तमे युगे।
दैत्यैस्त्रैलोक्य आक्रान्ते तृतीयो वामनोऽभवत्॥७४॥
नमुचिः शम्बरश्चैव प्रह्लादश्चैव विष्णुना॥८१॥
दृष्ट्वा संमुमुहुः सर्वे विष्णु तेज विमोहिताः॥८४॥
एतस्तिस्रः स्मृतास्तस्य दिव्याः सम्भूतयः शुभाः।
मानुष्याः सप्त यातस्य शापजांस्तान्निबोधत ॥८७॥
संक्षिप्त युग चक्र
प्रथम ब्रह्माब्द-(६१९०२-३७९०२ ई.पू.)-स्वायम्भुव मनु या ब्रह्मा पूर्व सभ्यता। याम देवता। ४ मुख्य वर्ण-साध्य, महाराजिक, तुषित, आभास्वर। मणिजा सभ्यता-खनिजों का दोहन। देवों द्वारा विमान प्रयोग।
द्वितीय ब्रह्माब्द-(३७९०२-१३९०२ ई.पू.)-३१००० ई.पू. में जल प्रलय के बाद स्वायम्भुव मनु द्वारा २९१०२ ई.पू. में सभ्यता का विकास। साध्यों के दशवाद (नासदीय सूक्त) का ६ दर्शनों में समावेश, लिखित वेद संहितायें।
इसमें अवसर्पिणी (३७९०२-२५९०२ ई.पू.)-सत्ययुग ३७९०२-३३१०२ ई.पू.
त्रेता (३३१०२-२९५०२ ई.पू.)-जल प्रलय के बाद पुनः स्वायम्भुव मनु द्वारा सृष्टि का विकास।
द्वापर (२९५०२-२७१०२ ई.पू.)-वैदिक सभ्यता का विकास
कलि (२७१०२-२५९०२ ई.पू.)
उत्सर्पिणी में कलि (२५९०२-२४७०२ ई.पू.), द्वापर (२४७०२-२२३०२ ई.पू.)
त्रेता (२२३०२-१८७०२ ई.पू.)-स्वारोचिष से चाक्षुष तक ५ अन्य मनु, ७ सावर्णि मनु के काल। हिमयुग के साथ अन्त।
सत्ययुग (१८७०२-१३९०२ ई.पू.)- हिमयुग के बाद १७५०० ई.पू. में कश्यप (द्वितीय ब्रह्मा) द्वारा सभ्यता का पुनः विकास। १७१०० ई.पू. में पृथु द्वारा पूरी पृथ्वी में खनिजों की खोज और दोहन। १५८०० ई.पू. में कार्तिकेय द्वारा अभिजित् पतन के बाद धनिष्ठा (वर्षा से) सम्वत्सर आरम्भ।
तृतीय ब्रह्माब्द-(१३९०२ ई.पू. से १००९९ ईस्वी तक)-
अवसर्पिणी (१३९०२-१९०२ ई.पू.) में-
सत्ययुग (१३९०२-९१०२ ई.पू.)-विवस्वान् तथा वैवस्वत मनु का युग आरम्भ। वैवस्वत यम के बाद जल प्रलय और उसके बाद ऋषभदेव से पुनः सभ्यता का आरम्भ।
त्रेता (९१०२-५५०२ ई.पू.), द्वापर (५५०२-३१०२ ई.पू.)-महाभारत के साथ युग का अन्त। कलि (३१०२-१९०२ ई.पू.) -भगवान् महावीर के जन्म के साथ युग का अन्त।
उत्सर्पिणी (१९०२ ई.पू. से १००९९ ईस्वी तक) में-
कलियुग (१९०२-७०२ ई.पू.)-शूद्रक शक (७५६ ई.पू.) से युग का अन्त। द्वापर (७०२ ई.पू.-१६९९ ईस्वी तक), त्रेता (१६९९-५२९९ ईस्वी तक), सत्ययुग (५२९९-१००९९ ईस्वी)
त्रेता सन्धि (१६९९-१९९९ ईस्वी) में विज्ञान और उद्योग का विकास।
असुर राजा-ये कश्यप (१७५०२ ई.पू.) के बाद ३६० वर्षों के १० युगों में थे।
(१) वराह Avatar-चतुर्थ युग (१६४२२-१६०६२ ई.पू.)-वराह ने समुद्र पार कर हिरण्याक्ष को मारा। जेन्द अवेस्ता के अनुसार हिरण्याक्ष का राज्य आमेजन नदी के क्षेत्र (दक्षिण अमेरिका) में था। यह पुष्कर द्वीप तथा उत्तर-दक्षिण गोलार्ध के ४-४ खण्ड के विभाजन में रसातल था। ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२०/९-४६) में सभी तलों तथा उनके मुख्य राजाओं का वर्णन है। यह ब्रह्मा के पुष्कर (उज्जैन से १२ अंश पश्चिम बुखारा) के विपरीत होने के कारण पुष्कर द्वीप कहते थे। हिरण्याक्ष के राज्य में भगवान् की वराह रूप में पूजा होती थी। गरुड़ पुराण (१/८७/३०) के अनुसार तेजस्वी नामक इन्द्र के शत्रु हिरण्याक्ष का वराह रूपधारी (मनुष्य) विष्णु ने वध किया था। हिरण्याक्ष को प्रसन्न करने के लिये विष्णु अपने १८ साथियों सहित वराह का मुखौटा पहन कर आमेजन तट पर पहुंचे। वहां इनका स्वागत हुआ। एक दिन अचानक हिरण्याक्ष के महल पर आक्रमण कर उसे मार डाला तथा वहां से निकल भागे। उसके बाद असुर लोग वराह से घृणा करने लगे। यह इस्लाम में प्रचलित है। पुराणों में भी कहीं कहीं चर्चा है कि हिरण्याक्ष को धोखे से मारा गया था।
(२) नरसिंह Avatar-(५, ६ युग, १६०६२-१५३४२ ई.पू.)-तलातल लोक में लिबिया-मिस्र का राजा हिरण्यकशिपु था। पश्चिम ओड़िशा (नरसिंहनाथ से विशाखापत्तनम् के निकट सिंहाचल तक) में नरसिंह अवतार हुआ जिसने हिरण्यकशिपु पर आक्रमण किया (नरसिंह पुराण)। नरसिंह की सेना प्रह्लाद की सहायता से वहां गुप्त रूप से घुस गयी तथा हिरण्यकशिपु को मार कर प्रह्लाद को राजा बनाया। हिरण्याक्ष उससे बहुत पहले दक्षिण अमेरिका में था, पर विश्व शक्ति सन्तुलन में एक ही पक्ष का होने से बड़ा भाई कहा गया है।
(३) बलि (सप्तम युग, १५३४२-१४९८२ ई.पू.)-विष्णु का वामन Avatar पुरी के निकट। उनका व्यक्तिगत नाम विष्णु ही था। भरद्वाज ने उनको वेद और शस्त्र की शिक्षा दी। भाद्र शुक्ल द्वादशी के दिन बलि द्वारा अधिकृत देवों के ३ लोक वामन ने ले लिया। उस दिन से इन्द्र का राजत्व आरम्भ हुआ, अतः राजाओं का काल इसी दिन से गिना जाता है। शून्य से गिनती शुरु होने के कारण इसे ओड़िशा में शून्या पर्व या सुनिया कहते हैं। महायुद्ध और संहार से बचने के लिये बलि देवों का राज्य देने के लिये राजी हो गये थे, पर कई असुर मानते थे कि देवता बल पूर्वक राज्य नहीं ले सकते थे और युद्ध करते रहे। विष्णु के कूर्म अवतार ने उनको सम्झाया कि विवाद केवल धन के लिये। यदि उसका उत्पादन नहीं होगा, तो उस पर अधिकार कैसे करेंगे। देवों और असुरों ने संयुक्त रूप से धातुओं का खनन किया। झारखण्ड तथा निकट के भागों में असुरों ने खनन में सहायता की तथा आज भी वहां खनिजों के नाम पर उनकी उपाधि हैं। देव खनिजों के शोधन में कुशल थे अतः जिम्बाब्वे की खान से निकले स्वर्ण का शोधन किया जिसे पुराणों में जाम्बूनद स्वर्ण कहा गया है। चान्दी का शोधन देवों ने मेक्सिको में किया अतः संस्कृत में चान्दी को माक्षिकः कहते हैं। खनिजों के बंटवारे के लिये पुनः संघर्ष आरम्भ हुआ जिसमें राहु मारा गया। बहुत दिनों तक युद्ध चला जिसके बाद कार्तिकेय ने क्रौञ्च द्वीप (उड़ते पक्षी आकार का उत्तर अमेरिका) पर आक्रमण किया, जिसका उल्लेख मेगास्थनीज ने अन्तिम भारत आक्रमण के रूप में किया था।
(४) मत्स्य Avatar– वैवस्वत मनु (१३९०२ ई.पू.) के बाद देवों का प्रभुत्व था और किसी विष्णु अवतार की जरूरत नहीं हुई। उसके बाद आधुनिक अनुमानों के अनुसार ११००० से १०००० ई.पू. तक जल प्रलय का प्रभाव था। जेन्द अवेस्ता के अनुसार यह जमशेद का समय था जिनको पुराणों में वैवस्वत यम (कठोपनिषद् के उपदेशक) कहा गया है। कई पुराणों में भी यम काल में जल-प्रलय लिखा है। यम की राजधानी संयमनी इन्द्र की अमरावती से ९० अंश पश्चिम थी। यह अम्मान, मृत सागर के निकट था। वहां से वामन का पूर्व दिशा में पहला पद इन्द्र की अमरावती में था जो संयमनी से ९० अंश पूर्व था। यह इण्डोनेसिया (यवद्वीप के बाद ७ मुख्य द्वीप) के पूर्व भाग में था (वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, ४०/५३)। जल प्रलय के बाद मत्स्य अवतार तथा राम जन्म के समय दोनों पद्धतियों से प्रभव वर्ष था (विष्णु धर्मोत्तर पुराण, ८२/७-८, ८१/२३-२४)। सौर पद्धति में ८५ सौर वर्ष में ८६ बार्हस्पत्य वर्ष होते हैं। पितामह पद्धति में सौर वर्ष को ही बार्हस्पत्य वर्ष कहते हैं। अतः दोनों का सम्मिलित चक्र ८५ x ६० = ५१०० वर्ष में होगा। इस गणना से मत्स्य अवतार ९५३३ ई.पू. तथा राम जन्म ४४३३ ई.पू. में था। मत्स्य अवतार के बाद ऋषभ देव ने पुनः सभ्यता का आरम्भ किया अतः उनको स्वायम्भुव मनु का वंशज कहा है जिन्होंने ३१००० ई.पू. के जल प्रलय के बाद सृष्टि आरम्भ की थी। वैवस्वत मनु की परम्परा पुनः इक्ष्वाकु से १-११-८५७६ ई.पू. में शुरु हुई जिनको वैवस्वत मनु का पुत्र कहा गया है।
(५) इक्ष्वाकु के बाद के अवतारों को मनुष्य अवतार कहा गया है। वैवस्वत मनु से कलि आरम्भ तक ३६० वर्ष के ३० युग होते हैं, पर २८ कहे गये हैं, अतः २ युग = ७२० वर्ष जल प्रलय में ले सकते हैं। या २८ युग की समाप्ति ३१०२ ई.पू. मान कर १०वें युग से गणना कर सकते हैं। १०वें युग में दत्तात्रेय, १५वें में मान्धाता, १९वें में परशुराम तथा २४वें में राम हुए थे। अतः इनका समय है-दत्तात्रेय (९५८२-९२२२ ई.पू.), मान्धाता (७७८२-७४२२ ई.पू.), परशुराम (६३४२-५९८२ ई.पू.), राम (४५४२-४१८२ ई.पू.) होंगे। परशुराम के निर्वाण के बाद ६१७७ ई.पू. में कलम्ब सम्वत् आरम्भ हुआ जो केरल में कोल्लम नाम से प्रचलित है। उनकी १५ पीढ़ी पूर्व डायोनिसस या बाक्कस का आक्रमण ६७७७ ई.पू. में हुआ था जो ६०० वर्ष का अन्तर है। वायु पुराण (९८)-
एतास्तिस्रः स्मृतास्तस्य दिव्याः सम्भूतयः शुभाः।
मानुष्याः सप्त यास्तस्य शापजांस्तान्निबोधत॥८७॥
त्रेतायुगे तु दशमे दत्तात्रेयो बभूव ह।
नष्टे धर्मे चतुर्थश्च मार्कण्डेय पुरःसरः॥८८॥
पञ्चमः पञ्चदश्यां तु त्रेतायां सम्बभूव ह।
मान्धातुश्चक्रवर्तित्वे तस्थौ तथ्य पुरः सरः॥८९॥
एकोनविंशे त्रेतायां सर्वक्षत्रान्तकोऽभवत्।
जामदग्न्यास्तथा षष्ठो विश्वामित्रपुरः सरः॥९०॥
चतुर्विंशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा।
सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः॥९१॥
(६) कृष्ण Avatar-१२५ वर्ष की आयु में उनका देहान्त ३१०२ ई.पू. में हुआ जब कलियुग आरम्भ हुआ था। अतः उनकी जन्मतिथि १९-७-३२२८ ई.पू (भाद्र कृष्ण अष्टमी) है।
(७) बुद्ध Avatar-सिद्धार्थ बुद्ध (१८८७-१८०७ ई.पू.) तथा गौतम बुद्ध (४८३ ई.पू. में निर्वाण) ने भारत की रक्षा के लिये असुरों को मोहित नहीं किया था, बल्कि भारतीय लोगों को मोहित कर वेद मार्ग में बाधा दी थी। विष्णु अवतार बुद्ध मगध में अजिन ब्राह्मण के पुत्र रूप में हुए थे जिन्होंने असुर (असीरिया) आक्रमण से रक्षा के लिये आबू पर्वत पर यज्ञ किया जिसमें ४ प्रमुख राजाओं ने भारत की रक्षा के लिये मालव संघ बनाया। संघ के अध्यक्ष शूद्रक के नाम पर इस दिन ७५६ ई.पू. से शूद्रक शक आरम्भ हुआ। असीरिया इतिहास के अनुसार भी वहां की रानी सेमिरामी ने अफ्रीका तथा मध्य एशिया के राजाओं की सहायता से ३५ लाख सेना इकट्ठा कर भारत पर आक्रमण किया था। संघ के ४ राजवंशों की वंशावली भी उसी काल से चलती है-प्रमर या परमार (पंवार), चपहानि या चाहमान (चौहान), प्रतिहार (परिहार), शुक्ल (चालुक्य, सोलंकी, सालुंखे)। भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३, अध्याय २१-
सप्तविंशच्छते भूमौ कलौ सम्वत्सरे गते॥२१॥
शाक्यसिंह गुरुर्गेयो बहु माया प्रवर्तकः॥३॥
स नाम्ना गौतमाचार्यो दैत्य पक्षविवर्धकः।
सर्वतीर्थेषु तेनैव यन्त्राणि स्थापितानि वै॥ ३१॥
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व, ३/३-
व्यतीते द्विसहस्राब्दे किञ्चिज्जाते भृगूत्तम॥१९॥
अग्निद्वारेण प्रययौ स शुक्लोऽर्बुद पर्वते।
जित्वा बौद्धान् द्विजैः सार्धं त्रिभिरन्यैश्च बन्धुभिः॥२०॥
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व, ४/१२-
बौद्धरूपः स्वयं जातः कलौ प्राप्ते भयानके।
अजिनस्य द्विजस्यैव सुतो भूत्वा जनार्दनः॥२७॥
वेद धर्म परान् विप्रान् मोहयामास वीर्यवान्।॥२८॥
षोडषे च कलौ प्राप्ते बभूवुर्यज्ञवर्जिताः॥२९॥
भागवत पुराण १/३/२४-ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम्।
बुद्धो नाम्नाजिनसुतः कीकटेषु भविष्यति॥
(८) कल्कि Avatar-अभी कल्कि अवतार होना बाकी है पर उनकी जन्म तिथि चैत्र शुक्ल १२ को मनाई जाती है। वह धूमकेतु के समान तलवार से असुरों का वध करेंगें।
भागवत पुराण, स्कन्ध १२, अध्याय २-
शम्भलग्राममुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः।
भवने विष्णुयशसः कल्किः प्रादुर्भविष्यति॥।१८॥
अश्वमाशुगमारुह्य देवदत्तं जगत्पतिः।
असिनासाधुदमनमष्टैश्वर्यगुणान्वितः॥१९॥
यदावतीर्णो भगवान् कल्किर्धर्मपतिर्हरिः।
कृतं भविष्यति तदा प्रजासूतिश्च सात्विकी॥२३॥
यदा चन्द्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्ये बृहस्पती।
एकराशौ समेष्यन्ति भविष्यति तदा कृतम्॥२४॥
१ अगस्त, २०३८ को भारतीय समय ९ बजे सूर्य, चन्द्र. बृहस्पति तीनों ग्रह पुष्य नक्षत्र तथा एक राशि में होंगे।
Featured image courtesy: Pinterest (vachalenxeon.deviantart.com and Decode Hindu Mythology).