क्या मुग़ल सहिष्णु थे? भारत में मुग़ल राज के समय हिंदू नर संहार का भयावह विवरण
भारत में मुग़ल साम्राज्य को अक्सर भारतीय इतिहास में एक सहिष्णु और समावेशी इस्लामिक सल्तनत के रूप में देखा जाता रहा है| यह धारणा विशेष रूप से व्यक्ति के मन में घर कर सकती है जब वह ‘मुख्यधारा का भारतीय इतिहास’ पढ़ता है, जोकि प्रायः एक आधुनिक धरम निरपेक्ष भारत की विचारधारा में स्वातंत्र्य के लिए एक महान राष्ट्र के संघर्षों के अभूतपूर्व इतिहास को मलिन करके समाहित करने के एक ओछे प्रयास से अधिक कुछ भी नहीं होता है| मैं व्यक्तिगत रूप से धर्मनिरपेक्षता की संकल्पना में कुछ भी गलत नहीं पाता हूं, इसके सही सार में यह भारत जैसे लोकतंत्र के लिए कोई अभिशाप नहीं है। लेकिन धर्मनिरपेक्षतावादी प्रचार के उद्देश्यों की सेवा के लिए इतिहास को काट छांट कर हिंदुओं के पूर्वजों के बलिदानों, कष्टों और संघर्षों को धता बता करके इसे प्राप्त करने की कोशिश करना न केवल निरर्थक है, बल्कि एक अर्थ में आत्म-पराजक भी है क्योंकि जब इतिहास का एक गंभीर छात्र जब सीधे मध्यकालीन भारत के समकालीन मुस्लिम दस्तावेज़ों और स्रोतों को संदर्भित करना व पढ़ना शुरू कर देता है, उसके लिए बहुत आसान है धर्मनिरपेक्षता के बुने गए कथानक के आरपार देख पाना। और यह अनुभव न सिर्फ एक पाठक की आंखें खोलता है ऐतिहासिक सत्य की ओर, बल्कि स्वाभाविक रूप से आधुनिक भारत के विश्विद्यालयों में प्रचलित तथाकथित मुख्यधारा के इतिहास के लेखन व पठन पाठन पर भी सवालिया निशान लगा देता है |हालाँकि, मैं मुगल शासन से पिछले अरब, तुर्किक और अफगान राजवंशों की तुलना में अधिक सहिष्णु होने के आख्यान में कुछ योग्यता पाता हूँ, लेकिन, इस लेख के माध्यम से मैं इस कहानी के विचार के पूरी तरह से या आम तौर पर सच होने के विचार की हास्यास्पदता को आलोकित करने की उम्मीद करता हूँ और साथ ही साथ लंबे समय तक मुसलमान ताक़तों द्वारा भारत में चलाई गई हिंदू नर सन्हार की प्रक्रिया में मुघल सल्तनत द्वारा निभायी गई महत्वपूर्ण भूमिका को भी स्थापित करने की आशा करता हूँ।
हालाँकि एक शासन को देखने और उसका मूल्यांकन करने के लिए शासन के कई विचार योग्य पहलू हैं, लेकिन यह लेख मुगल सल्तनत के सैन्य व्यवहार के आसपास केंद्रित है, खासकर गैर मुस्लिम, मुख्य रूप से हिंदू प्रजा के साथ।
1528-29 की ठंड में दिल्ली सल्तनत और महाराणा सांगा के लोदी वंश पर अपनी विजय के बाद, दिल्ली के पास हिंदू मंडाहरों द्वारा बाबर को कड़ी चुनौती दी गई। उन्होंने बाबर की 3000 सैनिकों की एक फौज को भी हराया, जिस पर एक बाबर द्वारा एक बड़ा बल भेजा गया जिसमें 4,000 घुड़सवार और कई हाथी थे। मंडाहर बस्ती ज़मींदोज़ कर दी गई । बाबर ने हथियाई गई हिंदू महिलाओं में से 20 को छांटकर स्वयं के लिए रख लिया, बाकी उसने अपने साथियों में बांट दीं । अहमद यादगर के अनुसार, ” मंडाहर पुरुष जमीन में आधे दबाकर, मुगलों द्वारा तीर से मारे गए थे।”
अबुल फजल के अनुसार, 1562 में, अकबर ने विजित हिंदुओं के पत्नियों, बच्चों और अन्य रिश्तेदारों को रखने या बेचने से मुगल सैनिकों को प्रतिबंधित किया। लेकिन इसे कभी लागू नहीं किया गया था, या इसे लागू नहीं किया जा सका था क्योंकि यह मुगल अभिजात्य वर्ग था , न कि सम्राट जिसने मुगल इस्लामिक स्टेट की दासता, निर्वासन और यहां तक कि निर्मूलनकारी(क़त्ल ए आम) नीतियों में (कोफ, 1990) बढ़चढ़कर हिस्सा लिया, खासकर मुगल संप्रभुता के एक ‘कॉर्पोरेट शासन ‘ माने जाने की वजह से, जिसमें सभी मुग़ल सरदार व सेनानायक नौकरों के बजाय ‘सदस्य’ थे, जो सब इकट्ठे हुए थे हिंदुस्तान में युद्ध करने, व विजय के फलस्वरूप धन सम्पदा, महिलाओं व हिंदू जनता को लूटने के लिए ।
1620 और 1630 के दशक के दौरान, इस संबंध में एक प्रमुख भूमिका एक आप्रवासी उज़्बेक अमीर अब्दुल्ला खान फिरोज जंग द्वारा निभाई गई थी|
यह बताया गया है कि 1619-20 में, अब्दुल्ला खान ने सुल्तान द्वारा शासन करने के लिए दिए गए कालपी-कन्नौज क्षेत्र के सभी राजाओं और ‘विद्रोहियों’ को हराया (फजल, अकबर नामा । 195-96) । सभी प्रमुख पुरुष लोगों का सिर काट दिया गया, जबकि 2,00,000 की संख्या में हिंदू किसानों की पत्नियों, बेटियों और बच्चों को खान के निर्देश पर, ईरान ले जाया गया और वहां बेच दिया गया (पेल्सर्ट)
1632 में आगरा से पटना जाने वाले एक अंग्रेज यात्री पीटर मुंडी ने 200 मीनार या खंभे देखे, जिन पर इस क्षेत्र से गुजरने के 4 दिनों के दौरान मोर्टार के साथ लगभग 7,000 कटे हुए सिर चिन दिए गए थे। इसे मुंडी ने अब्दुल्ला खान और उसकी 12,000 घोड़े और 20,000 पैदल मुगल फौज का कारनामा बताया है , मुन्दी के शब्दों में, “जिसने(अब्दुल्ला ख़ान ने) उनके (हिंदुओं के) सभी कस्बों को नष्ट कर दिया, उनकी सारी संपत्ति को हड़प लिया, उनकी पत्नियों और बच्चों को गुलाम बना लिया , और उनके सभी प्रमुख पुरुषों के सिर काट कर मीनारों में चिनवा दिया “।
चार महीने बाद पटना से आगरा लौटने के दौरान, मुन्डी ने देखा कि इस बीच प्रत्येक मीनार पर 2,100 से 2,400 कटे हुए हिंदू सिरों के साथ , 60 अन्य मीनारों को जोड़ा गया था और नई मीनारों के निर्माण अभी तक नहीं रुके थे|
अब्दुल्ला खान के लिए, यह नियमित अभ्यास था (कोफ, 1990)। एक बार एक आगंतुक द्वारा यह पूछे जाने पर कि उसने कितने काफिरों के सिर काट दिए थे, उसने कहा, “2,00,000 सिर होंगे ताकि आगरा से पटना तक के दो कतार लगाई जा सकें “। उन मुस्लिमों को, जिन्होने बहुत विनम्रता से इस आधार पर उसके क्रूर तरीक़ों पर सवाल करने की हिम्मत की , कि इन काफिरों में से एक या दो निर्दोष मुसलमान हो सकते हैं, को अब्दुल्ला खान ने अपने क्रूरतापूर्ण कैरियर की शुरुआत, 1627 ही में गुस्से से यह जवाब देकर चुप करा दिया, ” मैंने पाँच लाख महिलाओं और पुरुषों को बंदी बना लिया है और उन्हें बेच दिया है। वे सभी मुसलमान बन गए हैं । उनकी संतान से, फैसले के दिन (मुस्लिम-उद-दौला) करोड़ (मुसलमान) होंगे
[नीचे एक ऐसी ‘मीनार’ का चित्रण किया गया है]
यह व्यक्ति, अब्दुल्ला खान, जो अपनी सेवाओं के लिए मुगल सिंहासन द्वारा फिरोज जंग के खिताब से सम्मानित किया गया , कालांतर में सबसे प्रसिद्ध मुगल सेनापतियों में से एक बन गया, जिसने औरंगजेब के अधीन बीजापुर की घेराबंदी तक, एक के बाद एक क्रूर अभियान चलाए। 1638 के आसपास, कुछ समय के बाद,बिहार के राज्यपाल के रूप में अब्दुल्ला खान का सामना उज्जैनिया राजा रुद्र प्रताप के विद्रोह से हुआ । 6 हताश महीनों के बाद, रुद्र प्रताप ने क्षमा की आशा में आत्मसमर्पण करने के बारे में सोचा और वह अपने परिवार के साथ किले से बाहर आया। लेकिन शाहजहाँ ने रुद्र प्रताप को मौत के घाट उतारने का आदेश दिया; तब अब्दुल्ला खान ने प्रताप की पत्नी को मुस्लिम बना कर अपने पोते (हसन) से जबरन उसकी शादी कर ली, प्रताप की संपत्ति जब्त कर ली और प्रताप के राज्य को एक शाही एजेंट के प्रबंधन में डाल दिया। हालांकि 1656 में रूद्र प्रताप के एक वंशज को इस्लाम (अस्करी) को स्वीकार करने की शर्त पर सम्पदा वापस दी गई थी।
मुगल जनरलों के बारे में बात करते हुए, इस्लाम के कई योग्य पुरुषों में से एक ‘हुसैन खान’ टुकड़िया का नाम आना अवश्यंभावी है जिसने अकबर के शासनकाल में लाहौर के गवर्नर के रूप में हिंदुओं के लिए पहनावे पर पहचान के लिए टुकड़े बांध कर चलना अनिवार्य कर दिया जिससे उसे टुकड़िया की उपाधि मिली, ठीक जैसे तो हिटलर की नाजी सरकार ने पहचान के लिए यहूदियों को पीले डेविड सितारों पहनाए थे ।
हिंदुओं का जबरन विस्थापन उत्तर भारत में एक मुगल नीति थी। सेंट्रल एशिया से बड़ी संख्या में लोगों को दोनों तरफ़ से सिंधु नदी के पार ले जाया जाता रहा । जहां पश्चिमी हिंदुस्तान से हिंदू राजपूतों को निर्वासित कर सिंधु के परे गुलाम के रूप में केंद्रीय एशिया में भेज दिया गया था, अफगानों को पूर्व में निर्वासित कर दिया गया था और हिंदू राजपूत विद्रोहों के लिए कुख्यात क्षेत्रों में बसाया गया था। उदाहरण के लिए, दिलज़ाक अफगान अपनी मूल भूमि से पूरी तरह से गायब हो गए, न केवल मुगल और अन्य दक्खनी सल्तनतों द्वारा प्रस्तुत भारत में सैन्य रोज़गार के अवसरों के परिणामस्वरूप, बल्कि इसलिए भी कि जहाँगीर ने जानबूझकर अफ़गान क्षेत्रों से उपजने वाले विद्रोहों को रोकने के लिए बड़ी संख्या में उन्हें निर्वासित कर भारतीय भूभाग पर बसाया । अफगान मुसलमान विशेष रूप से उग्र राजपूतों से निपटने के लिए मांग में थे, और भारत में बुलाकर बसाए जाते थे |शाहजहाँ के शासनकाल के दौरान, बहादुर खान रोहिल्ला, एक अफगान कमांडर, जो कालपी और कन्नौज के मुगल जागीरदार की हैसियत में अब्दुल्ला ख़ान का उत्तराधिकारी था, को अपने 9,000 अफगानों के कारवां के साथ शाहजहांपुर के नव स्थापित शहर (जोशी, 1985, ) के सभी ’52 मुहल्लों ‘को आबाद करने के लिए लाया गया । 15,16,105,110,128-9,167) अफगान मुसलमानों ने, ने डच इतिहासकार डर्क कोफ के मुताबिक, ‘पश्चिमी हिंदुस्तान में आंशिक रूप से सफल राजपूत-जाति-संहार के मुगल प्रयास’ में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, (कोफ, 1990), जिस कारण वश, मेरा मत है कि, उत्तरी भारत के पंजाब मैदानों में बहुत कम हिंदू राजपूत बचे हैं । जाहिर है, राजपूतों ने विदेशी शासन, उसकी सहवर्ती गुलामी, शोषण और अपमान को समाप्त करने की कोशिश करने के लिए भारी कीमत चुकाई। ऐसा हश्र , जो आवश्यक रूप से विद्रोही हिंदू समुदाय तक ही सीमित नहीं था बल्कि विद्रोह ग्रस्त क्षेत्र में मुग़ल फौज के हत्थे चढ़ने वाले किसी भी व्यक्ति (विशेष रूप से हिंदू) के लिए मुग़ल सल्तनत द्वारा प्रायोजित अंजाम था. कन्नौज-कालपी क्षेत्र में चौहान राजपूतों द्वारा किए विद्रोह के पूर्व उल्लेखित मामले में मुग़ल साम्राज्य द्वारा आम हिंदू किसानों पर सामूहिक हत्या और दासता का वार, इसकी बानगी है | उन हिंदू किसानों व खेतिहर कामग़ारों को केवल इसलिए निशाना बनाया गया क्योंकि मुग़ल सरकार को उन पर इस विद्रोह में अपने सह धर्मी राजपूत भाईओं का साथ देने का संदेह था. विजित जनता की अंधाधुंध हत्या की तुर्क नीति का एक और प्रसिद्ध उदाहरण अकबर द्वारा चित्तौड़ का घेराव (1568) है, जहां जब 8,000 राजपूतों द्वारा रक्षित किले को जीत लिया गया , तो किले के अंदर रहने वाले 40 हज़ार निहत्थे हिंदू नागरिकों का नरसंहार किया गया था और गुलामी में धकेला गया था ; एक कृत्य जिसके पीछे की सोच अबुल फ़ज़ल रचित ‘अकबरनामा’ में दीख पड़ती है. फज़ल चित्तौड़गढ़ के हिंदू पुजारियों, किसानों और व्यापारियों पर आरोप लगाते हुए लिखता है कि वे किले के राजपूत रक्षकों की मदद करने के लिए ‘बड़ा जोश और गतिविधि दिखा रहे हैं’, एक मुगल शक जो ठोस विश्वास में सिर्फ इसलिए बदल गया क्योंकि जितनी अकबर ने उम्मीद की थी, किले को गिरने में उससे अधिक समय लगा।अकबर की इस कार्रवाई को एक जगविख्यात तुर्क दंगाई , अलाउद्दीन खिलजी के कृत्य से तौला जा सकता है, जिसने कम से कम चित्तौड़ दुर्ग में गैर-राजपूत हिंदुओं को बख्श दिया था|
अकबर की विजयों ने गुलामों के मध्य एशिया में व्यापार को हवा दी, जहां भारतीय गुलामों के लिए घोड़ों का आदान-प्रदान किया गया। मोनसेरेट के अनुसार (जिन्होंने 1581 में लाहौर से काबुल की यात्रा की), ‘भारत से दास, पार्थिया(पश्चिमी ईरान, इराक) से घोड़े’ की ये कहावत दास व्यापारियों के बीच प्रचलित थी। इस पर इतिहासकार डर्क कोफ तर्क देते हैं कि , यदि दासों का व्यापार घोड़ों के व्यापार की तरह तेज था, तो सालाना हजारों लोगों को गुलामों के रूप में भारत छोड़ना पड़ा होगा।
इन निर्वासनों में, जहाँगीर भी हिस्सा लेता था। विलियम फिंच, जो 1608 और 1611 के बीच भारत में थे, आगरा के आसपास सम्राट के शिकार अभियानों के बारे में रिपोर्ट करते हैं, जो कि आमतौर पर नवंबर के अंत से मार्च के अंत तक आयोजित किए जाते थे। फिंच लिखते हैं, “वह अपने चुने हुए पुरुषों के साथ काम करते हैं, एक निश्चित वन को घेर लिया जाता है, फिर वे घेरा छोटा करते हुए बढ़ते हैं जब तक कि वे स्वयं दोबारा नहीं मिल जाते ; और जो कुछ भी इस बाड़े में लिया जाता है, उसे राजा का शिकार या खेल कहा जाता है, चाहे वह पुरुष हो या पशु| और जो कोई भी सुल्तान की दया के बिना बच निकलना चाहता है, उसे अपने प्राणों से हाथ धोने पड़ते हैं । जानवरों के मांस, और पकड़े गए आदमी को बेचा जाता है, और उससे जुटी रकम से गरीबों को पैसा दिया जाता है [इस प्रकार वनवासी काफिर जनता सुल्तान के लिए एक बहुत ही सुविधाजनक स्रोत है, जिससे कि बिना किसी लागत वह अपना ज़कात अदा कर सकता है ]; और यदि सुल्तान उन्हें बेचने की बजाय गुलाम बनाकर रख लेते हैं, तो उन्हें सालाना काबुल से लाए जाने वाले कुत्तों और घोड़ों के बदले बेच दिया जाता है क्योंकि ऐसे वनवासी मनुष्य ख़ुद भी जानवरों से ज़्यादा बेहतर स्थिति में नहीं होते हैं”
मुगल इतिहास के बारे में सावधानीपूर्वक पढ़ने से पता चलता है कि हिंदू विद्रोहियों के प्रति अपनाई गई विनाशकारी नीतियों के होते हुए भी लगभग कभी भी कई हिंदू समुदायों ने दमनकारी सल्तनत को समाप्त करने के लिए एक साथ आकर युद्ध नहीं किया । दूसरे शब्दों में, सभी हिंदू जातियों को काटा गया,बलात्कार करके दास बना दिया गया, लेकिन एक-एक व अलग थलग करके, जिससे कभी अब्दुल्ला खान या आज़म खान कोका जैसे मुगल कमांडरों का काम कभी बहुत कठिन नहीं हुआ । उदाहरण के लिए, आगरा क्षेत्र के जाटों का मामला, जिनके साथ कई अलग-अलग मौकों पर ऐसे ही ही बर्बर तरीके से व्यवहार किया गया था। जीवित रहते हुए, 1624 में जहाँगीर ने अपने संस्मरणों में बहादुर जाट विद्रोहियों के लिए एक तिरस्कारपूर्ण संदर्भ देते हुए लिखा है कि उसने ‘ग्रामीणों और काश्तकारों’ (गँवारां ओ मुज़ारियां) के खिलाफ एक मुग़ल दस्ता भेजा था। ), । 1634 में, 10,000 हिंदू जाट पुरुष मौत के घाट उतार दिए और उनकी महिलाओं और बच्चों को ‘संगणना से परे’ (तुज़ुक-ए-जहाँगीरी, पृष्ठ 285) जब्त कर लिया गया। सबसे खूबसूरत गवाह जहाँगीर खुद है। 1619 के अंत में, उसने अब्दुल्ला खान को कन्नौज क्षेत्र में विद्रोह को रोकने के लिए भेजा, जिसका मैंने पहले ही उल्लेख कर दिया है। तुर्क साम्राज्यवादियों द्वारा हिंदू किले को जीते जाने से पहले कुछ कठिन लड़ाई हुई, जिसमें 30,000 हिंदू विद्रोही मारे गए। हिंदू प्रमुख का ताज या ‘टियारा’, 20 लाख रुपये के गहने और विद्रोहियों के 10,000 कटे हुए सिर भालों पर सजाकर मुग़ल सम्राट की उपस्थिति में लाए गए , जिससे जहाँगीर को इसे अपने संस्मरणों में इस नर संहार को दार्शनिक रूप से प्रतिबिंबित करने की प्रेरणा मिली, जिसमें वह लिखता है कि हिंदुस्तान इस ज़मीन से कितने ही मारे जाते हैं, लेकिन मुग़ल तख्त के खिलाफ खड़े होने वालों की तादाद फिर भी कम होती नहीं दिखती । कोल्फ, 1990)।
भारत में आए फ्रांसीसी फ्रेंकोइस बर्नियर एक घटना से अवगत कराते हैं, जब औरंगज़ेब ने एक फ़ारसी राजदूत को भारतीय दासों को अपने साथ वापस ईरान ले जाने से मना कर दिया।
यह, कोफ तर्क देते हैं, दास प्रथा को लेकर औरंगज़ेब के किसी विरोध के चलते नहीं था। बर्नियर टिप्पणी करते हैं, “यह निश्चित है कि इन दासों की संख्या बहुत अनुचित थी, क्योंकि उन्हें अकाल के कारण बेहद सस्ते में खरीदा गया था, और यह भी कहा जाता है कि फ़ारसी नौकरों ने कई बच्चों को चुरा लिया था”। वैसे भी, यह स्पष्ट है कि, 1660 के दशक में, दासों की भारतीय आपूर्ति और फारसी मांग अभी भी काफी थी। (कोल्फ, 1990)
सैन्य अभियानों के रूप में, औरंगज़ेब के शासनकाल में मुगल तलवार द्वारा हिंदू आबादी पर एक बड़ा आघात पहुंचाया गया था, चाहे वह राजपूताना, मथुरा, आधुनिक हरियाणा या मराठा क्षेत्र में मुगल सैन्य अभियान हो। हिंदू नागरिकों के लिए खासा खूनी उसका असंबद्ध मराठों के खिलाफ अभियान था (पहले शिवाजी और फिर उनके वीर सुपुत्र, शम्भाजी के नेतृत्व में) जिसमें मुगल अत्याचार, सूखा, प्लेग और अकाल के कारण लगभग बीस लाख मौतें हुईं।
मुगल अभिजात वर्ग द्वारा हजारों और हजारों हिंदू किसानों को दासता में धकेलने और जबरन निर्वासित किए जाने के अकाट्य सबूत है| हम देख सकते हैं, हिंसक दमन, दासता, इरादतन सामूहिक हत्याकांड और आयातित मुस्लिमों के साथ खाली किए गए हिंदू जिलों को फिर से बसाने की मुगल नीतियों से हिंदू आबादी पूर्ण रूप से खत्म तो नहीं ही हो पाई, लेकिन निश्चित रूप से मुग़ल भारत पर एक बड़ा जनसांख्यिकीय निशान छोड़ गए हैं। मुज़फ़्फ़रनगर, सहारनपुर, बरेली जैसे जिलों में मुसलमानों की भरपूर तादाद इस प्रकार सीधे मुगल साम्राज्य, और उसकी अनंतकाल तक राज कर सकने के लिए हिंदुओं का संहार कर उनकी आख़िरी ताक़त, यानि कि संख्या बल को भी हर लेने की कोशिश की देन है, जो कि मुग़ल दरबार में मौलवियों और उलेमा के ज़ोरदार दखल की वजह से पनपी कट्टर इस्लामी विचारधारा के चलते भी ज़रूरी समझा गया | ऐसे में पाठकों यह जानना फायदेमंद रहेगा कि यद्यपि ये सत्य है कि अकबर ने उलेमा की शक्तियों को बहुत हद तक खत्म कर दिया था, लेकिन उसके पुत्र और पौत्रों के समय में उलेमा का सरकारी कामकाज में दखल फिर से बढ़ा था, जो कि औरंगज़ेब के शासनकाल में इस हद तक पहुंचा कि मज़हबी उन्माद ही मुगलइया राजनीति का चालक बन गया और संधि किए हुए हिंदू राज्यों जैसे मारवाड़ को भी मुगलों के विरुध्द हथियार उठाने पड़े | सो अगर अकबर के आधे शासनकाल को छोड़ दें, तो यह उलेमा भारत की गुलामी के 700 सालों में रिमोट कंट्रोल से सरकार चलाता रहा है और हिंदुओं पर जज़िया, खराज और दूसरे किस्म के शोषक कर लगवाता रहा है, जिससे विवश होकर बहुत से हिंदुओं को इस्लाम कबूलना पड़ा |
किसी भी परिभाषा के अनुसार, मुगल शासन के ये कृत्य निर्विवादीत रूप से नरसंहार की संज्ञा के योग्य हैं |
नोट :यह लेख मुख्यतः डर्क कोफ की किताब, ‘नौकर राजपूत एंड सेपॉय’ पर आधारित है. कुछ वाक्य और अनुच्छेद उस किताब में से ले लिए गए हैं.
मूलतः यह लेख अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ था, भारत की हिन्दी भाषी जनता में इस जानकारी को पहुंचाने के लिए ये अनुवादन किया गया है.
अपने विचार कमेंट सेक्शन में प्रकट करने के लिए स्वतंत्र महसूस करें.
Featured image courtesy: Quora.
Key Source: This article is majorly based on Dirk Kolff’s Naukar, Rajput and Sepoy: The Ethnohistory of the Military Labour Market of Hindustan, 1450-1850 (University of Cambridge, Oriental Publications). Note: A few lines or paragraphs have been reproduced verbatim from Kolff’s book.
Disclaimer: The views expressed here are solely of the author. My India My Glory does not assume any responsibility for the validity or information shared in this article by the author.