भारतीय सेक्युलरिझम सेक्युलर नहीं है
लगभग तीन साल पहेले जब मैं ने एक टीवी खरीदा तब मुझे पता लगा कि, समभाव या स्थितप्रज्ञता का अभ्यास करने के कितने मौके मैं ने अब तक गंवाए थे। शुरुआत के दिनों में समाचार चेनलोंपर चर्चा करनेवाले विशेषज्ञों की बातें एक घंटे के लिये सुनते हुए कितनी तीव्र भावनाओं का तूफ़ान मेरे मन में उठता था और सभी स्थितियों में शांत रहना मेरे लिए तो असंभव ही था। तथापि, धीरे धीरे मैं ने अपने आप पर काबू पाया।आज भी मैं उन विशेषज्ञों की हाजिर जबाबी और दुसरों की बातें सुनते सुनते खुद की बात कहने की या चिल्लाने की काबिलियत को देख कर अचम्भित होती हूँ।
जाहिर है कि सभी विशेषज्ञ और टीवी के एंकर बहुत बुद्धिमान और चतुर होते हैं, किन्तु उन की चर्चा के विषय की पसंद अक्सर खेदजनक होती है और उनके कई मुद्दे सदैव गलत ही होते हैं।ऐसे मुद्दों में से एक मुद्दा सेक्युलर (धर्म निरपेक्षता) अथवा सेक्युलरिझम (धर्म निरपेक्षतावाद) का होता है।क्यों कि सेक्युलरिझम यह शब्द रोजाना भारतीय मीडिया में दोहराया जाता है, इसलिए मैं उस का सही स्वरुप मेरे नजरिये से पेश करना चाहती हूँ।
सेक्युलरिझम के लिये हिन्दी में आम तौर पर इस्तेमाल किया जानेवाला और भारत के संविधान में भी जिसका प्रयोग किया गया है वह धर्मनिरपेक्षता यह शब्द उसका सही अनुवाद नहीं है। मेरी यह सोच है कि, धर्मनिरपेक्ष शब्द से धर्म से कोई अपेक्षा नहीं रखना यह अर्थ निकलता है। किन्तु यह अजीब लगता है क्यों कि, इस जगत, समाज और व्यक्ति को धारण करनेवाली चीज धर्म होती है। यह भी निश्चित है कि, धर्म हानिकारक नहीं हो सकता । फिर भी सेक्युलर शब्द पश्चिम में रिलीजन (धर्म) के हानिकारक प्रभाव पर रोक लगाने के लिये गढाया गया था। हलांकि रिलिजन और धर्म यह दो शब्द समानार्थी नहीं हैं। पश्चिमी मताग्रही रिलीजनें को पंथ या संप्रदाय कहना उचित होगा लेकिन हिन्दी भाषा में प्रायः उन को धर्म शब्द से संबोधित किया जाता है। ऐसे गलत अनुवाद आम तौर पर उपयोग में लाये जाते हैं और उन के अंदर का फर्क जानने की आप सब को मेरी विनति है। मुझे आशा है कि, इस लेख को पढने के बाद यह बात आप अच्छी तरह से जान पायेंगे। मैं चाहूंगी कि जहाँ संभव हो वहाँ सेक्युलर के लिये पंथनिरपेक्ष और पश्चिमी रिलीजनों के लिये पंथ इन शब्द का प्रयोग किया जाय। इस लेख में सम्भ्रम टालने के लिये अंग्रेजी शब्द सेक्युलर यथावत इस्तेमाल किया गया है।
भारत में सामान्यतः यह समझा जाता है कि, सेक्युलर और कम्युनल परस्पर विपरीत शब्द हैं। मगर ऐसा नहीं है। और कम्युनल यह शब्द इतना बुरा भी नहीं है। उसका सरल अर्थ है, किसी सम्प्रदाय (कम्युनिटी) से जुड़ा हुआ। जर्मनी में स्थानिक संस्थाओं के चुनाव कम्युनल इलेक्शन (कोम्युनलवाहलेन) के नाम से जाने जाते हैं।
सेक्युलर का मतलब होता है ऐहिक और वह धार्मिक (रिलीजस) शब्द का विपरीत अर्थी शब्द है। इस संदर्भ में धार्मिक का संबंध क्रिश्चानिटी से है। याने कि, वह धर्म जो सुसंघटित, स्वमताभिमानी एवम् कट्टर है और जो दावा करता है कि, वह सत्य का एक मात्र रखवाला है, और यह सत्य स्वयं भगवान (गॉड) केवल अपने चर्चवालों से ही प्रकट करते हैं।
और यह प्रकट सत्य क्या है? संक्षेप में कहा जाय तोमनुष्य का जन्म पाप-कर्म या अपराध के कारण हुवा है जिस का मूल आदम और ईव्ह के काल तक पीछे लिया जाता है। परन्तु, हमारा सौभाग्य है कि, लगभग २००० साल पहले, गॉड को मनुष्य जाति के प्रति करुणा जाग उठी और उन्हों ने अपने एक मात्र पुत्र (सन) जीझस क्राइस्ट को हमारे उद्धार के लिये इस दुनिया में भेजा। जीझस ने क्रॉस के उपर हमारे पापों के लिये बलिदान दिया और बाद में वह मृत अवस्था से पुनः जीवित होकर वापस आये औऱ फिर उनके स्वर्गस्थ पिता (फादर इन हेवन) के पास वापस चले गये।तथापि जीझस के बलिदान का फायदा लेने के लिये जरूरी है कि, हम ईसाई धर्म का स्वीकार करें, चर्च के सदस्य बनें, बपतिस्मा लें, वरना हम निर्णायकी दिन (जजमेंट डे) पर चिरकालीन नर्कवास में डालें जायेंगे।
जाहिर है कि, अपने दिमाग का इस्तमाल करनेवालों को ऐसे दावों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। मगर सदीयों तक उन्हे चुप बैठना पडा, या अपनी जान गँवाने का खतरा मोल लेना पडा। इसका कारण यह था कि, बहुत लंबे अर्से तक चर्च और सरकार एक ही सिक्के की दो बाजू थे। प्रकट सत्य को चुनौति देना खुदकुशीसमान और प्रायः नामुमकिन बनाने के लिये कडे से कडे कानून बनाये गये थे। विधर्म या पाषंड के लिये कडी यातनाओं और मृत्युदंड की सजा मिलती थी। दूरदराज गोवा में जब फ्रान्सिस झेवियर ने अपनी बस्ती में न्यायिक जांच (इन्क्विझिशन) बुलाई तब स्थानिक भारतीयों को निर्दयता का सामना करना पडा था। कईं मुस्लिम देशों में इस्लाम छोडना मृत्युदंड देने योग्य होता है।
एक विशेष ध्यान देने लायक बात यह है कि, जिस काल में चर्च और सरकार जुडे हुए थे और पादरीओं के हाथों में ताकद थी और निष्ठावान भक्तों की बदहाली थी, उस काल को काला युग (डार्क एज) कहा जाता है। और जब चर्च को अपनी पकड ढीली करने पर मजबूर होना पडा था, उसे प्रबोधन युग (एज ऑफ एनलायटनमेंट) कहा जाता है, जिस का प्रारंभ कुछ ३५० साल पहले हुआ था। वैज्ञानिक खोजों को नजरअंदाज करना अब आसान नहीं रहा था और चर्च को अपना सही स्थान दिखाने में इस बात का काफी महत्वपूर्ण योगदान रहा। अब अधिक संख्या में युरोपियन समाज के लोग धर्म के मजबूत बंधनों का प्रतिकार करने की हिम्मत करने लगे थे। उन में से कईओं को जेल में भी जाना पडा था।
धीरे धीरे, यह बात लोगों के दिल में पक्की होने लगी कि, प्रकट सत्य तर्क पर आधारित होता है, उस की बुनियाद अंध विश्वास नहीं हो सकती। औऱ समाज की बुनियाद किसी वैज्ञानिक आधार पर होनी चाहिये, यह भावना जोर पकडती गयी। इसी में से चर्च और सरकार एक दूसरे से अलग होने चाहिये यह मांग आगे आयी। समाज के इस तरह के विभाजन को सेक्युलरिझमकहा जाने लगा। पश्चिमी देशों में यह हाल ही में घटी हुई घटना है।
आज, ज्यादातर पश्चिमी जनतांत्रिक देश सेक्युलर हैं, याने कि, चर्च उस की कार्यसूची सरकारी सत्ता के बल पर जनता के उपर लाद नहीं सकता। फिर भी बहुतांश पश्चिमी जनतांत्रिक देशों में क्रिश्चानिटी को विशेष अधिकार या सुविधाएं प्राप्त होती हैं।मिसाल के तौर पर, जर्मनी में सरकारी स्कूलों में ख्रिश्चन सिद्धांतों का पढाना संवैधानिक रूप से आवश्यक है। उस के अलावा, चर्च कर्मचारियों के लिये (जिन की संख्या केवल जर्मनी में ही दस लाख के उपर है) चर्च के नियमों का पालन अनिवार्य करने के लिये विशेष लेबर कानून चर्च ने बनाए रखे है। फिर भी अभी के हालात काले युग से काफी मात्रा में अच्छे है, जब लोगों को मजबूरी से अविश्वसनीय हठधर्मिता का विश्वास करने का नाटक करना पडता था।
तथापि, भारत में हालात ऐसे नहीं थे। यहाँ के लोगों की प्रमुख धार्मिक धारा में अनुचित सिद्धान्तों को बलपूर्वक लोगोंपर लादनेवाला ऐसा कोई सत्ता केंद्र था ही नहीं, जिसे सरकार के आधार की जरूरत हो। उन की धार्मिक निष्ठाएँ ऋषियों की अन्तर्दृष्टी और तर्क, आंतरिक प्रेरणा एवम् प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर स्थित थी। अपनी अभिव्यक्ति के लिये उन के पास कईं रास्ते थे।उन की निष्ठा विश्वास और सर्व जीवन के एकमात्र स्रोत, जिसे ब्रह्मन्, परमेश्वर, आत्मन् किसी भी नाम से जाना जा सकता था, उस के प्रति श्रद्धाभाव पर आधारित थी। अपनी सद्सद्विवेकबुद्धि के निर्देश के अनुसार उचित समय पर उचित कर्म करने की उनकी सोच थी। उन के लिये सुनहरा उसूल (गोल्डन रूल) यही थाः दूसरो के प्रति ऐसा व्यवहार न करें, जो हम अपने प्रति न चाहते हो। विचारों की महानता और आदर्श आचरण के प्रति उन के मन में सम्मान था।
तथापि, यह खुला वातावरण इस्लाम और क्रिश्चानिटी के भारत में प्रवेश से बदल गया। जो भारतीय लोग वसुधैव कुटुंबकम् के सिद्धान्त में मानते थे, उन को तुच्छता और उपहास और मुस्लिम शासन के अंदर तो बडी संख्या में मौत का भी सामना करना पडा, सिर्फ इसलिये कि वह हिन्दु थे। वैसे देखा जाय तो हिन्दु यह केवल एक भौगोलिक संज्ञा थी।
भारतीयों को एहसास ही नहीं था कि, इस दुनिया में उन के पुराने धर्म से पूर्णतः विरुद्ध हठधर्मी लोग भी होते हैं। उन के इतिहास में पहली बार भगवान के नाम पर निर्दयता से हत्या करनेवालों से उन का सामना हुआ। व्होल्टायर जिस ने युरोप में चर्च की मजबूत पकड से लोहा लिया था, सही कहा था, “जो आप को मूर्खता में विश्वास रखने को विवश कर सकते हैं, वह आप को क्रूरता का व्यवहार करने के लिये भी मजबूर कर सकते हैं।”
गुरु नानक ने गुरु ग्रंथ साहिब में ३६० वे पन्ने पर आसा महला १ में उस समय की डरावनी परिस्थिति के बारे में लिखा हैः-
खुरासान खसमाना कीआ हिदुसतानु डराइआ ।। आपै दोसु न देई करता जमु करि मुगलु चडाइआ ।। एती मार पई करलाणै तैं की दरदु न आइआ ।।१।। करता तूं सभना का सोई ।।जे सकता सकते कउ मारे ता मनि रोसु न होई ।। रहाउ ।। सकता सीहु मारे पै वगै खसमै सा पुरसाई ।। रतन विगाडि विगोए कुतीं मुइआ सार न काई ।। आपे जोडि विछोडे आपे वेखु तेरी वडिआई ।। २ ।। जे को नाउ धराए वडा साद करे मनि भाणे ।। खसमै नदरी कीडा आवै जेते चुगै दाणे ।। मरि मरि जीवै ता किछु पाए नानक नामु वखाणै ।।३।।५।।३९।।
सरल हिन्दी में इस का अर्थ हैः- बाबर के मुल्क खुरासान की रक्षा भगवान ने की है और हिन्दुस्थान पर खौफ बरसाया है। लेकिन हमारे भगवान को इस का दोषी नहीं ठहराया जा सकता कि मुगल मौत के सौदागर बने हैं। हे भगवन्, हमारे दुख इतने भयंकर हैं, फिर भी आप को कुछ भी दर्द नहीं होता। हे सृष्टि के कर्ता, आप सबके हो। अगर एक बलवान दूसरे बलवान से लडता है तो हमें कोई चिंता नहीं है। मगर कोई दुष्ट शेर निर्बल बकरीओं के उपर हमला करे तो हे ईश्वर आप ही की जिम्मेदारी होगी। मेरे मातृभूमी का रतन कुत्तों ने बिगाड दिया है। मगर उन के जाने के बाद कोई उन को प्यार से याद नहीं करेगा।
जब बाबर ने हिन्दुस्थान पर दूसरी बार हमला बोला था और गुरु नानक को भी कारावास भुगतना पडा था, तब उन्हों ने इन आक्रोश भरे शब्दों में बयान किया था।
मुस्लिम शासन के दौरान हिन्दुओं को डर के मारे छुप कर रहना पडता था और ब्रिटिश राज में उन को उपहास और तुच्छता को झेलना पडा था, एवम् शिक्षा नीति के तहत अपनी परंपरा से उन का नाता तोडा गया था। इस वजह से स्वाभाविक रूप से उन के स्वाभिमान की धज्जीयाँ उड गयी। आज तक अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीय लोगों की स्वाभिमानहीनता बाहर से आये लोगों को स्पष्टता से दिखाई देती है, हलांकि उन व्यक्तिओं को उस का अंदाजा नहीं होता। हिन्दुओं के स्वाभिमान को पुनः जागृत करने के स्वामी विवेकानंद के प्रयास इन व्यक्तियों पर कुछ खास प्रभाव नहीं डाल सके। फिर भी इतनी सदीयों तक हिन्दु धर्म बना रहा, टिक पाया, यही एक बडी उपलब्धि है। और इस के विपरीत, इतिहास बताता है कि, थोडे ही समय के अंदर पश्चिमी देश पूरी तरह क्रिश्चानिटी के और पचास से अधिक देश इस्लाम के शिकंजे में आ गये थे।
अब सेक्युलरिझम की तरफ वापस आते हैं। हिन्दु धर्म बना रहा और उस ने कभी भी सरकार के शासन व्यवस्था मेंकिसी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया, इस के बावजूद १९७६ में सेक्युलर यह शब्द भारत के संविधान में जोडा गया। स्वतंत्रता मिलने के बाद कईं नॉनसेक्युलर निर्णय लिये गये होंगे, और शायद इसी कारण से यह शब्द जोडा गया होगा।उदाहरण के लिये, मुस्लिम और क्रिश्चन प्रतिनिधियों ने विशेष नागरी कानून और अन्य लाभों की मांग की थी और वह पाने में उन्हें कामयाबी भी मिली थी।
तथापि, सेक्युलरशब्द संविधान में जोडने के बाद स्थिति में कुछ विशेष अंतर नहीं आया। वास्तव में सरकार हठाग्रही धर्मों को (जिनके कारण सेक्युलर शब्द बनाया गया था) विशेष लाभ दिलाने के लिये विशेष रूप से उत्सुक लग रही थी। कभी कभी तो न्यायसंस्थाओं को सरकार के उत्कट उत्साह को रोकने का काम करना पडा।
यह समझ के बाहर की बात है। सेक्युलरशब्द को संविधान में जोडा जाता है और उस के उपर कोई कार्रवाई होती नहीं ऐसा क्यों? सबसे मजेदार बात तो यह है कि, सेक्युलरशब्द का एक नया भारतीय अर्थ प्रचलित हुआ। आज भारत में इस शब्द का अर्थ है, उन दो बडे धर्मों को प्रोत्साहन देना जिन्हें हिन्दुओं के प्रति कोई सम्मान की भावना नहीं है और जिनकी कट्टरता सब को चिरकालीक नर्क में ढकेलती है।
यह एक दुःखद व्यंग है। लाखो ज्यू लोगों की क्रूर हत्या के लिये मुआविजा पाने की कोशिश करने के बजाय ज्यू लोग जर्मन लोगों को सम्मान से विशेष अधिकार देंगे, ऐसा आप कभी सोच भी सकते हो क्या? फिर भी, इस्लाम और क्रिश्चानिटी, जिन्हों ने भारतीयों को सैंकडो सालों से नुकसान पहुंचाया है, उन से भारत सरकार के द्वारा विशेष सुलूक किया जाता है और उन का अपना धर्म जिसे भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर कोई खुद की जगह, कोई सहारा न हो, उसे धुतकारा जाता है। और इस के भी आगे ऐसे बरताव को सेक्युलरकहा जाता है!
जाहिर है कि, भारतीयों ने युरोप के अनुभव से कुछ भी सीखा नहीं है। हिन्दुओं ने इन हठधर्मीयों के इरादों को पहचाना नहीं है। वह खुले आम कहते हैं कि हिन्दुधर्म को दुनिया से मिटाना है, फिर भी हिन्दु उन से सम्मान के साथ व्यवहार करना चाहते हैं। इस परस्पर समभाव का आदान-प्रदान कभी भी मुमकिन नहीं होगा, जब तक इन धर्मों में यह माना जाता हो कि उनका गॉड सब से यही चाहता है कि केवल उसी की अनन्यभाव से पूजा करना आवश्यक है। हिन्दुओं के यह समझ में नहीं आता कि, जो विचारधारा गॉड को एक नकाब की तरह इस्तेमाल करती हो वह पवित्र नहीं होती, किन्तु अधिक मात्रामें भयानक होती है।
मीडिया और राजनीतिज्ञ इस बात को अधिक पेचीदा बना देते हैं। जो राजनैतिक पार्टी किसी धार्मिक समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हो उस का संबोधन वह धार्मिक की बजाय सेक्युलर शब्द से करते हैं। जब सरकार बडे, धार्मिक दादागिरी करनेवालों के दबाव में आ कर कुछ सहुलियत प्रदान करती है, तो उसे भी सेक्युलरिझम कहा जाता है। लेकिन सरकार ऐसा क्यों करती है? यह तो आग से खेलने के बराबर है। क्या सरकार जनता को काले युग के प्रथमदर्शी अनुभव देना चाहती है? सभी भारतीयों के हित में यही होगा कि, इन शक्तिशाली, हठधर्मी विचारधाराओं को पूर्णतः नजरअंदाज किया जाय और सभी नागरिकों के उपर एक जैसा ध्यान केन्द्रित किया जाय। तभी इसे सेक्युलर कहा जा सकता है।
पश्चिमी सेक्युलर सरकारे भी तो रोल मॉडल नहीं हैं। वहाँ उदासी, निराशा, ड्रग्ज और अल्कोहोल का सेवन अधिक मात्रा में है और जिंदगी के मजे लूटने के बावजूद भी वहाँ के लोग खुश या सुखी नहीं हैँ। यहाँ पर भारत में अनुकूल परिस्थिति है। हमारे ऋषियों ने हमारे लिये एक महान विरासत का निर्माण किया है जिस में जीवन बिताने के आदर्श बताये गये हैं। उन के लिखे ग्रंथों में से राजनीति, अर्थशास्त्र, अनुशासन जैसे अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त हो सकता है। अगर उन के दिखाये मार्गों पर विचार किया जाय और भारत की सरकार अपने ही देश के पुराने धर्म के आधार पर चलायी जाय, तो इस देश को अपनी पुरानी खोयी हुआ महिमा, प्रतिष्ठा, प्रभुता वापस मिल सकती है या उसकी सम्भावना दृढ होती है। भारत फिर सेदुनिया का सबसे उन्नत, विकसित देश बन सकता है और उस के नागरिक खुले दिमाग वाले एवम् संतुष्ट हो सकते हैं। अगर ऐसा नहीं होता, तो शायद इस विचार धन का खजाना पश्चिमी लोगों के हाथ लग सकता है और वह उस का लाभ उठा सकते है….. हम से पहले।
This article, originally in English, by Maria Wirth and translated by सुभाष फडके was first published at the author’s personal blog.
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