क्यों कश्मीर का वाकया दो दोस्तों के बीच महज़ एक मनमुटाव नहीं है
एक यहूदी को कैसा महसूस होगा अगर कोई जर्मन उससे कहे, “हम दोनों के बीच कुछ समय पहले कुछ मनमुटाव हो गए थे, लेकिन चलो इसे भूल जाते हैं और इसे छोड़ अब आगे बढ़ते हैं।” अपने नजदीक का ही उदहारण लेते हैं कि एक पाकिस्तानी हिंदू पिता जिसकी बेटी का अपहरण कर लिया गया, एक मुस्लिम व्यक्ति से जबरन निकाह कर दिया गया , और अब उसे इस ‘छोटे- मोटे ग़लतफ़हमी’ को भूल उस निकाह को अपनाने और नए परिवार को गले लगाने के लिए कहा जाय।
विधु विनोद चोपड़ा द्वारा फिल्म ‘शिकारा’ बनाने के पीछे उपरोक्त विचार ही कार्यान्वित हो रहा प्रतीत होता है, जब वे कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों और कश्मीरी मुसलमानों में एक छोटा सा मनमुटाव ही था और अब इसे भूलकर आगे बढ़ने का समय आ गया है।
‘मनमुटाव भुलाना’ आसान होना चाहिए। गेंद अब तो कश्मीरी पंडितों के पाले में है। कश्मीरी पंडितों को ही यह स्वीकार कर कि यह केवल एक ‘छोटा-मोटा मनमुटाव मात्र’ था, अपना बड़प्पन दिखाना होगा। कश्मीरी मुसलमान अब तक बाहें फैलाये कश्मीरी पंडितों का इंतजार ही तो कर रहे थे!
विद्यालयों में अनादिकाल से दो बच्चों के बीच झगडा सुलझाने में इस्तेमाल की जाने वाली रणनीति है यह। यहां तो शिक्षक श्री चोपड़ा की बात माननी ही होगी। आखिरकार, बस उनको ही तो ज्ञान है कि सब के लिए सबसे अच्छा क्या है। और कईयों के अनुसार कश्मीरी पंडितों को अब तक मनाना आसान रहा है। आप आँसूओं के दो बूँद उनके सामने टपका दें और वे अब पिघले कि तब।
श्री चोपड़ा के लिए एकमात्र सांत्वना यह है कि बॉलीवुड का अधिकांश कुनबा उनकी मानसिकता को ही साझा करेगा और उनके विचारों के प्रति सहानुभूति प्रकट करेगा। सेकुलरों द्वारा वित्त पोषित, दुनिया की चिंता करने वाले लोगों को अब हिंदू जागरूकता के बढ़ने से पैदा होने वाले खतरे के कारण फिल्म बनाना होगा, स्क्रिप्ट लिखनी होगी ताकि सिनेमा हॉल में फिल्म देखने जाने वाले हिन्दुओं को यह महसूस न हो कि उसके पूर्वजों के साथ इतिहास में कैसा व्यवहार हुआ है। यहाँ अब तक ‘सेकुलरिज्म’ शब्द का अक्षरसः पालन होता आया था। पर अब तो पानी उल्टी दिशा में बह चला है। तो, चलो अतीत में संभवतः हुए ‘छोटे-मोटे मनमुटाव’ को स्वीकार किया जाय।
हमें याद दिलाया जाता है कि कला की कोई सीमा नहीं होती। बशर्ते फिल्म बॉलीवुड की हो और थीम में हिंदू संस्कृति शामिल हो और इसमें हिंदू देवताओं और नायकों के बीच के दृश्य हों। इसमें भी एक फ़ॉर्मूला है कि हिंदूओं को अपने उत्पीड़न के लिए स्वयं को जिम्मेदार के रूप में दिखाया जाना चाहिए, जबकि अन्य हिंदू उनका उपहास कर रहे हों, उनकी आलोचना कर रहे हों और एक महान अब्रहमिक बुद्धिमान व्यक्ति उसे गलत दिशा में जाने से रोक सही दिशा दिखाता है। ‘दीवार’, ‘शोले’ या ‘पीके’ से लेकर आज तक, यह फ़ॉर्मूला कभी फेल नहीं हुआ है।
अस्सी साल पहले, फिल्म ‘गॉन विद द विंड’ ने दुनिया को एक रोमांटिक अमेरिका का दक्षिण भाग दिखाया था, जहां बागान मालिकों की खूबसूरत लड़कियां सफेद स्कर्ट में नाच रही होती हैं, जबकि दास उन्हें नींबू-पानी परोस रहे होते हैं। किसको पता था कि उसके बाद की गुलामी कितनी भयावह थी?
चालीस साल पहले, ब्रिटिश निर्देशक रिचर्ड एटनबरो को अपनी फिल्म में गांधी का किरदार निभाने के लिए एक भी भूरी चमड़ी वाला भारतीय नहीं मिला और उन्होंने बेन किंग्सले नामक एक गोरे को इस काम के लिए चुना। उन्होंने कहा कि उन्हें भारत में ऐसा कोई नहीं मिला जो उस महान नेता की भूमिका निभा सके। संदेश स्पष्ट था। परदे पर गांधी का अभिनय करना एक भारतीय अभिनेता के बस कि बात नहीं थी। जब किसी ने उनसे पूछा कि कैसे एक गोरा, जो एक ब्रिटिश व्यक्ति है, स्वयं में गांधी को अनुभव कैसे कर सकता है, उपनिवेशवाद और गाँधी द्वारा झेले गए इससे जुड़े अपमानों को कैसे महसूस कर सकता है, उसका जवाब सरल था, “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।”
इसमें छुपा अर्थ सरल था। गोरा व्यक्ति श्रेष्ठ होने के कारण भूरे लोगों को इतनी अच्छी तरह से समझ सकता है कि उसे उसका अभिनय करने में कोई समस्या नहीं होगी। उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया कि क्या इसका उल्टा भी उतना ही सत्य है?
फिल्म ‘शिकारा’ में, गैर-हिंदूओं को मुख्य पात्रों के लिए चुना गया है। यदि निर्देशक से पूछा जाए तो वह इसी तरह का स्पष्टीकरण देगा, “अगर गैर-हिंदू ही यह भूमिका निभाते हैं तो क्या समस्या है? आखिरकार यह अभिनय ही तो है।” कश्मीरी पंडितों को बताया जाएगा और अगर कोई ‘छोटा-मोटा मनमुटाव’ होता है, तो इसे आसानी से सुलझाया जा सकता है। वैसे भी कश्मीरी पंडित धारा 370 हटने से सातवें आसमान पर हैं , जैसे हिन्दू राम जन्मभूमि का मामला सुलझने से। वे जल्द ही इसे भुला देंगे।
जोर देने के लिए, निर्देशक ने घुटी हुई आवाज़ में कहा कि उन्होंने इसे कश्मीर में कश्मीरी मुसलमानों के साथ मिलकर बनाया है जिसमें स्थानीय मुसलमानों ने इनकी मदद की। एक पूरी आबादी द्वारा इस हार्दिक परिवर्तन को निश्चित रूप से इतिहास में सबसे महान परिवर्तन के रूप में आंकना चाहिए और इस पर शोध किया जाना चाहिए। यह एक और कारण है कि क्यों कश्मीरी पंडितों को अपना गुस्सा छोड़ देना चाहिए।
फिल्म ‘गांधी’ भी भारत के मूल निवासियों के प्रति ब्रिटिश लोगों कि महानता को छिपाने और संरक्षित करने का एक प्रयास था। कौन याद रखेगा कि उन्होंने अंडमान के कैदियों पर कितना अत्याचार किया था जब वे देखेंगे कि एक अंग्रेज खुद उस महान व्यक्ति का अभिनय कर रहा है? दास और स्वामी के बीच, तब भी, जब कि वह उसपर अपना अधिकार खो चुका है, कहानी बयां करने का अधिकार बरकरार रखता है। मैकाले की दृष्टि सतत ज़ारी है, अनवरत।
स्टीवन स्पीलबर्ग से एक बार पूछा गया था कि क्या एक जर्मन अभिनेता एक होलोकॉस्ट फिल्म में एक यहूदी की भूमिका निभा सकता है? एक पल रूककर उन्होंने कहा, “नहीं” और कहा कि, हालांकि, जर्मन अभिनेता जो रचनात्मक और संवेदनशील हैं, वे गैस चैंबर का सामना करने वाले एक यहूदी को कभी भी अभिनीत नहीं कर सकते। उन्होंने कहा, “न केवल इस कारण कि पहले उन्हें होलोकॉस्ट कोअपने अनुभव में लाकर महसूस करने की आवश्यकता होगी, बल्कि एक अन्य कारण से भी।” उन्होंने कहा, “वे कभी यह नहीं समझ सकेंगे कि यहूदी होने का क्या अर्थ होता है। यह उस पीढ़ी की स्मृति के साथ अन्याय होगा, जिनकी दर्दनाक हत्या कर दी गई, बल्कि, यह वर्तमान पीढ़ी के लिए अपमानजनक होगा और यह कदम इस घाव को भरने की दिशा में भी नहीं होगा। ”
ऐसी सोंच बॉलीवुड निर्देशकों और अभिनेताओं के अक्ल के परे है, जिनकी धर्मनिरपेक्ष विचारकों और ‘भाईयों’ के प्रति निष्ठा सर्वोच्च रहती है। सोचने वाली बात यह है कि ‘शिकारा’ में कश्मीरी पंडितों या 19 जनवरी 1990 से सम्बन्ध रखने वाली बात क्या है? क्या वे सभी शिकारे में चढ़कर भाग गए थे?
शिकारे, कश्मीरी पंडितों के जीवन और उनके पलायन से इतर,रोमांस की निशानी हैं। शिकारे हमें शम्मी कपूर के गायन और शर्मिला टैगोर, एक युवा कश्मीरी महिला, को लुभाने की याद दिलाते हैं, न कि कश्मीरी हिंदूओं के भयभीत चेहरे की, जो अपने जीवन या अपनी बहु-बेटियों की रक्षा करने की जद्दोजहद में हों। क्या हम ‘शिंडलर्स लिस्ट’ की जगह ‘अ ट्रेन जर्नी टू पोलैंड बाय ज्यूज’ या फिर ‘द लीक इन द गैस चैम्बर’ जैसे शीर्षकों की कल्पना कर सकते हैं?
क्या बॉलीवुड फिल्मों का उद्देश्य अपमान करना, नीचा दिखाना और भारतीयों को हमेशा जंजीरों में जकड़े रखना है? फिल्म ‘हैदर’ ने हिंदू धर्म के सबसे पवित्र मंदिरों में से एक, मार्तंड मंदिर में शैतानों का नृत्य क्यों दिखाया? ‘पीके’ ने भगवान शिव को इधर-उधर दौड़ते हुए और बाथरूम में ठहाके लगाते और छिपते हुए क्यों दिखाया?
फिल्म ‘द केदारनाथ’ में एक प्रेम भरे दिल वाला मुस्लिम नायक दिखाया गया है जो हिंदू तीर्थयात्रियों को उनके गंतव्य तक पहुंचने में मदद करता है और भूली-भटकी हुई हिंदू लड़की का दिल जीत लेता है। फिल्म में हिंदू बार-बार एक-दूसरे के साथ बक-झक करते और लड़ते दिखाए गए हैं।
फिल्म ‘शिकारा’ में, चाहे वह शीर्षक हो या निर्देशक की व्याख्या कि उन्होंने यह फिल्म क्यों बनाई या ऐसे पात्रों की कास्टिंग क्यों की, सभी बातें उन लोगों की कहानियों को मिटाने ओर ही इशारा करते हैं। समय आ गया है कि हम ऐसे कार्यों के रचनाकारों को बताएं कि वे हमारे पक्ष की कहानी का प्रतिनिधित्व नहीं करते और अब हम चुप नहीं बैठेंगे।
कश्मीरी पंडितों के लिए विश्वासघात होना कोई नई बात नहीं है। पहले यह असंगठित था और किसी भी परिणाम की चिंता किये बिना ऐसा करना संभव था। आज, उनके पलायन के बाद, उनका अपमान करना अधिक सूक्ष्म हो गया है, छिपे हुए अर्थों के साथ किया जा रहा है, क्योंकि इन काफिरों को कश्मीर के बाहर रखने का दाँव-पेंच अब खतरे से खली नहीं रहा। ‘कश्मीर के ‘काफिरों’ को सामूहिक जलसों और नारों के बीच कश्मीर की मस्जिदों से आने वाले संदेशों के साथ ही छोड़ने के लिए कहा गया था। इस ऐतिहासिक कुकृत्य को वे ही सुधार सकते हैं जिन लोगों के सामूहिक विवेक ने इसे अंजाम दिया। अन्यथा, मुझे लगता है कि इतिहास इसका वह न्याय करेगा जो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा।
This article, originally published in English, is translated by Satyam.
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