वेदों और गीता का आपसी सम्बन्ध: एक तार्किक अध्ययन

Geeta

वैदिक व्यवस्था को आधार मानकर राज्य व्यवस्था एवं राष्ट्र निर्माण के सर्वोत्कृष्ट अनुभव हमें गीता करवाती है, भगवन श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन एवं उनके भाइयों को जो उपदेश युद्ध के मैदान में दिए गए वह सभी उपदेश वेदों की आज्ञा ही तो है, किन्तु अज्ञानवश हम उन वेदाज्ञाओं को भूलकर गीता में न जाने कौन सा ज्ञान खोजने लग जाते है कि चाहे राष्ट्र, समाज, संस्कृति पूर्ण नष्ट हो जाये परन्तु फिर भी हम यही सोचते रहते है की कोई चमत्कार हो जायेगा.

 

चमत्कार तो तभी हो सकता है जब हम सभी मिलकर उस पौरुष को कर दिखाएं, जिसे श्री कृष्ण ने मनोबल विहीन, संख्याबल में कमजोर एवं युद्ध की अनिच्छा रखने वाले अर्जुन, एवं उनके भाइयों से करवा लिया. अर्जुन को तो ऐन युद्ध के समय गीता का ज्ञान मिला था आज तो घर घर में गीता है फिर घर घर में अर्जुन क्यों नहीं है? फिर भी हम विजयी होने के स्वप्न नहीं देखते, हम विजयी नहीं होना चाहते तो फिर क्या काम ऐसी गीता का, एवं क्या लाभ वैदिक ज्ञान का, जिसके बूते आर्य विश्व विजयी थे, सर्वोत्कृष्टथे, सर्वसमृद्धि के स्वामी थे. गीता का स्पष्ट अर्थ है पुरुषार्थ करों एवं शत्रु पर सर्वश्रेष्ठ एवं अंतिम विजय प्राप्त करों नहीं तो पुरुषार्थहीन होकर रोज नयी परिभाषाएं गढ़ लो, मंदिर बना लो, कीर्तन करते हुए गीता जी को सिर पर धारण कर लो और अपनी अपनी दुकानदारी चलाओ, गीता तो समझ आने से रही, गीता तो सिर के अन्दर धारण करने से ही समझ में आयेगी, एवं इसके लिए किसी बाहरी आडम्बर की आवश्यकता नहीं है.

 

यदि गूढ़ ज्ञान के भण्डार को संकुचित कर वेदों की ऋचाओं में बद्ध कर दिया गया है, एवं वेदों की प्रत्येक ऋचा में यह ज्ञान संकलित है, तो यह जान लीजिये कि वेदों की शत्रुनाशन ऋचाओं में जो गूढ़ ज्ञान है उसी का विस्तृत परीक्षण महाभारत के युद्ध में गीता के उपदेश के माध्यम से हुआ है. शत्रुनाशन सूक्त का ही प्रायोगिक परीक्षण है गीता. अब या तो आप उस सूक्त में गीता समझ लें, या फिर गीता को समझने में हजारों ग्रंथों की रचना कर लें, गीता तो तभी समझ आयेगी जब सोया हुआ आत्सम्मान एवं आत्मबल जागेगा, जब समाज एवं राष्ट्र का चिंतन बाकी के सभी विचारों से पहले होगा.

 

गीता मतलब शत्रुनाशन, गीता मतलब शत्रु का सर्वस्व नाश, गीता मतलब सर्वश्रेठ कर्मों एवं पूर्ण आत्मविश्वास के साथ शत्रु नाश करने में कोई संशय नहीं होना, यही गीता है| यही ऋग्वेद में लिखा है, यही अथर्ववेद में भी लिखा है. गीता को गीतोपनिषद भी कहा जाता है,गीता क्या किसी वेद का उपनिषद है? यदि गीता उपनिषद है तो किस वेद के कौन से सूक्त का? मुझे यह मान लेने में कोई संकोच नहीं है कि गीता ऋग्वेद के दशम मंडल के ८३ एवं ८४ सूक्तो का उपनिषद है. इन्ही ऋचाओं को अथर्ववेद के चतुर्थ काण्ड के ३१वें एवं ३२वे सूक्त में यथारूप ग्रहण किया है. मन्यु का अर्थ दुष्टों पर उत्साह युक्त क्रोध है, इसी लिए यजुर्वेद 19.9 में प्रार्थना है —

 

मन्युरसि मन्युं मयि धेहि,

हे दुष्टों पर क्रोध करने वाले (परमेश्वर)! आप दुष्ट कामों और दुष्ट जीवों पर क्रोध करने का स्वभाव मुझ में भी रखिये. महाभारत के पश्चात ऐसा लगता है कि समाज मन्यु विहीन हो गया है, तभी तो हम सब दुष्टों के व्यवहार को परास्त न कर के, उन से समझौता करते चले आ रहे हैं. समाज, राष्ट्र, एवं संस्कृति की सुरक्षा के लिए, मन्यु कितना मह्त्व का विषय है यह इस बात से सिद्ध होता है कि ऋग्वेद, अथर्ववेद के बाद भी सरल भाषा एवं पूरे विस्तार से समझाने के उद्देश्य से गीता में उन भावों को पुरे विस्तार से जन हितार्थ समझाया गया है.

 

यस्ते मन्योSविधद्वज्र सायक सह ओजः पुष्यति विश्वमानुषक |
साह्याम दासमार्यं त्वया युजा सहस्कृतेन सहसा सहस्वता || ऋ 10/83/1

 

हे मन्यु, जिस ने तेरा आश्रयण किया है, वह अपने शस्त्र सामर्थ्य को, समस्त बल और पराक्रम को निरन्तर पुष्ट करता है. साहस से उत्पन्न हुवे बल और परमेश्वर के साहस रूपी सहयोग से समाज का अहित करने वालों पर बिना मोह माया (स्वार्थ, दुख) के यथायोग्य कर्तव्य करता है, श्रीकृष्ण के शब्दों में

 

कर्मण्येवाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचनः,

 

वेद फिर कहते हैं :

संसृष्टं धनमुभयं समाकृतमस्मभ्यं दत्तां वरुणश्च मन्युः |
भियं दधाना हर्दयेषु शत्रवः पराजितासो अप नि लयन्ताम् || ऋ10/84/7 AV4.31.7

 

हे मन्यु , बोधयुक्त क्रोध , समाज के शत्रुओं द्वारा (चोरी से) प्राप्त प्रजा के धन को तथा उन शत्रुओं के द्वारा शत्रुराष्ट्र में पूर्व में एकत्रित किये गये दोनो प्रकार के धन को शत्रु के साथ युद्ध में जीत कर सब प्रजा जनों एवं उचित अधिकारियों को प्रदान कर (बांट). पराजित शत्रुओं के हृदय में संग्रामभूमि में इतना भय उत्पन्न कर दे कि वे निलीन हो जाएं. वेदों के अनुसार त्यागी, तपस्वी,राजपुरुष, एवं विद्वानों के प्रेमपूर्वक समझाने पर भी जो भ्रष्टाचार और दुराचार का परित्याग न करे, एवं जिसके कृत्य समाज के लिए घातक हो उनको राजा द्वारा कठोर दंड देना चाहिए, उन पर दया नहीं दिखलानी चाहिए. थोड़े से लोगों को भी ऐसा कठोर दंड देने से अन्य लोग प्रेरणा प्राप्त कर उन पाप कार्यों में निवृत नहीं होंगे. इसीलिए वेदों में दंड विधान में छोटे दंड से लेकर कारागार, एवं कारागार से लेकर मृत्यु दंड तक का विधान हैं. अस्त्रशस्त्र का उपयोग केवल अन्य राष्ट्र पर आक्रमण ही नहीं है किन्तु इनके उपयोग द्वारा ही राष्ट्र, समाज, एवं संस्कृति की रक्षा संभव है, शत्रु का नाश संभव है, इसीलिए वैदिक व्यवस्था में स्पष्ट है कि समाज की प्रत्येक इकाई अपने निजी जीवन में स्वार्थ वश हिंसा न करे, यानि अहिंसा परमो धर्मः किन्तु साथ ही साथ यह भी स्पष्ट प्रावधान है कि अस्त्र शस्त्रों का निरंतर अभ्यस एवं निर्माण भी राष्ट्र में सतत चलते रहना चाहिए, जिससे राष्ट्र के शत्रुओं द्वारा यदि किसी भी प्रकार का अधार्मिक आचरण किया जाता है तो उसका समुचित प्रतिकार किया जा सके यानि धर्म हिंसा तथैवचः।

 

यदि हमारा राष्ट्र, समाज एवं संस्कृति सुरक्षित है तो ही हम अपने जीवन में सर्वोच्च वैदिक आदर्शों पालन कर पाएंगे, यदि राष्ट्र ही सुरक्षित नहीं है तो न संस्कृति बचेगी न समाज, अतः वेदों में राष्ट्र की सुरक्षा को सर्वोपरि माना गया है| वैदिक दंड विधान, जिसे गीता में भगवान् श्री कृष्ण द्वारा और स्पष्ट किया गया है, से ही विश्व शांति की कल्पना सिद्ध होती हैं। वेदों के अनुसार विश्व में शांति स्थापित करने के उद्देश्य से ही दंड व्यवस्था का प्रावधान हैं। अगर राष्ट्र में देशद्रोही,चोर, डाकू, भ्रष्टाचारी, अनाचारी, अत्याचारी लोग अपने कुकृत्य में लगे रहेंगे तो विश्व में शांति की स्थापना हो ही नहीं सकती। इसलिए उनका उचित समाधान निकालने से ही शांति संभव हैं। वेदों में सामान्य प्रजा जो अपना धर्मानुसार जीवन व्यतीत कर रही हैं की रक्षा करने का आदेश हैं, एवं रक्षा तभी संभव है जब राष्ट्र एवं समाज अस्त्र शस्त्रों से एवं इनके सञ्चालन के ज्ञान से पूरी तरह संपुष्ट होगा, इसलिए वेदों पर एवं वैदिक ज्ञान पर विश्वशांति स्थापित करने की महत्ती जिम्मेदारी भी है.

 

गीता स्पष्ट कहती है जो पुरुषार्थ करेगा वह विजयी होगा, तो फिर देर किस बात की, उठो और इन अँगुलियों से सम्पूर्ण विश्व के भाग्य के लेख लिखो, गीता का कृष्ण पुरुषार्थ का देवता है, अर्जुन उसका अनुगामी, तुम भी पुरुषार्थी बनो, पुरुषार्थी भीख मांगने के लिए नहीं है वरन देने के लिए बना है, क्या अर्जुन ने श्री कृष्ण से भीख मांगी? नहीं उन्होंने दृष्टि मांगी, अर्जुन की दृष्टि स्वार्थ की थी, स्वार्थ की दृष्टि संकुचित होती है, वह स्वार्थ पर ही टिकती है, किन्तु कृष्ण की दृष्टि, वेदों की दृष्टि तो समस्त भूमंडल पर है, स्वार्थ में कपट है, कृष्ण दृष्टि में, गीता की दृष्टि में दायित्व बोध है, इसलिए गीता की दृष्टि अपनाओ. दायित्व बोध की आवश्यकता तब होती है जब किंकर्तव्यविमुढ़ता हावी हो जाती है, जब सही एवं गलत का निर्णय करने में हम सक्षम नहीं होते. यदि अर्जुन जैसा शूरवीर, युधिष्टिर जैसा ज्ञानी, भीम जैसा योद्धा, एवं नकुल सहदेव जैसे प्रतापी भी विमूढ़ता की स्तिथि को प्राप्त होते हैं तो साधारण मानव के लिए ऐसा होना कोई गलत नहीं होगा किन्तु साथ ही साथ हमें यह भी ज्ञान होना चाहिए के जिस गीता के सन्देश से उनकी दृष्टि स्पष्ट हुई एवं लक्ष्य का संधान कर पाई वही सन्देश हमें भी सुलभ है, अनेक मित्र वेदों के बारे में परिचित नहीं है, कुछ मित्रों को गीता के बारे में भी बहुत गलतफहमियां है , साथ ही साथ करीब-करीब सभी मित्र गीता अथवा वेदों को धार्मिक ग्रन्थ मानने के भ्रम से पूर्वाग्रही हैं…

 

क्या वेद अथवा गीता वास्तव में धर्म ग्रन्थ हैं अथवा कुछ और हैं, यदि हमें वेदों एवं गीता का यथारूप समझने का अवसर मिल जाए तो यह स्पष्ट हो जायेगा की वेदों एवं गीता का धर्म के नाम की कथित अफीम से दूर-दूर का भी रिश्ता नहीं है. वेदों का धर्म, गीता का धर्म तो मात्र राष्ट्र उत्थान, समाज उत्थान एवं मानव उत्थान का मार्ग है, जिस धर्म की परिभाषा को हम जी रहें हैं उससे तो वेदों का, भगवन श्रीकृष्ण का या गीता का कोई वास्ता ही नहीं है. हमें अपनी परिभाषाओं पर पुनर्विचार करना होगा, यदि भारत को विश्व गुरु बनाना है तो प्रत्येक भारतीय को इस पर चिंतन करना होगा, १०० करोड़ की सम्मिलित सोच की शक्ति दावानल बनकर मानवता विरोधी शक्तियों को जलाकर भस्म कर देगी एवं पूरे विश्व में ज्ञान विज्ञान की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करेगी, किन्तु यह उन्नति तभी संभव है जब हमें हमारे इतिहास का सही ज्ञान होगा,  इतिहास में हमारे समाज द्वारा अर्जित ज्ञान एवं वैभव की जानकारी एवं हमारे समाज के पतन होने के कारणों की जानकारी होगी.

 

मानवमात्र का जीवन निश्चित वर्षों का होता है, किन्तु राष्ट्रों एवं संस्कृतियों का जीवन हजारों वर्षों का होता है, इन हजारों वर्षों की निर्मिती के मूल में मानव मात्र की प्रत्येक पीढ़ी का योगदान एवं भविष्य को निर्धारित करने की सोच एवं प्रयासों से ही यह महानिर्माण संभव हो पाता है, वेद यही तो हमें बताते हैं, गीता एवं अन्य उपनिषद हमें आत्मुत्थान का मार्ग ही तो बताते है, किन्तु सारा आत्मुत्थान उस समय किसी काम नहीं आता जब समाज का वीर्य क्षीण हो जाता है एवं उस समाज से रजोगुणों का नाश हो जाता है तो वह समाज स्वयं अपनी सुरक्षा के लिए भी पराभिमुख हो जाता है. ऋषियों ने राष्ट्र के अनुभवों को,अपने अनुभवों के साथ जोड़कर हमारे लिए मार्गदर्शन दिया एवं वेदों की रचना हुई, पुरुषार्थी समाज ने इन अनुभवों से सीख कर प्रायोगिक परीक्षण किया जो हमारा इतिहास बना, हमें मूल के परिणाम इतिहास से ज्ञात होते हुए भी मूल एवं इतिहास दोनों को भूलकर किस ज्ञान की तलाश है? हमें मूल को ग्रहण करना है न की मीमांसाओं में डूब जाना है.

 

This article by Shanti Prakash Sharma was first published at desicnn.com.

 

Featured image courtesy: Wikipedia and Pinterest.

 

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Shanti Prakash Sharma

Shanti Prakash Sharma has interests in Vedic culture, ancient Indian civilization and History. He writes on Vedic subjects and commentary on 'Bhagvat Geeta' and delivers lectures on History.
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