शरिया अदालत: भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की एक और कोशिश

Sharia

महर्षि अरविन्द ने 1926 ई० में कलकत्ता में हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगो के पश्चात् एक बात कही थी,”हिन्दू-मुस्लिम एकता की दीवार हमेशा हिंदुओं के अधिकारों की बलिवेदी पर नहीं खड़ी हो सकती, अगर हिंदुओं को मुसलमानों के साथ एक ही राष्ट्र में रहना है तो किसी भी प्रकार उनका उनके धर्म पर अंधविश्वास कम करना होगा”।

 

1946 ई० में मुहम्मद अली ज़िन्ना के ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ के एलान ने कहीं न कहीं महर्षि अरविन्द के इस डर और चेतावनी को सार्थक कर दिया। एक व्यक्ति के कहने मात्र से लाखों- लाख मुस्लिम खड़े हो उठे और उन्ही हिंदुओं की हत्या की जो दशकों से उनके साथ रह भाईचारे और साम्प्रदायिकता की बात करते थे। लाखों-लाख हिंदुओं की नृशंष हत्या की गयी, और इन सब हत्याओं और उन्माद का एकमात्र लक्ष्य था, एक मुस्लिम राष्ट्र की स्थापना।

 

मुस्लिमों से डर का मुख्य कारण यह नही है कि वो कट्टर है और उनकी अपने धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा है। उनसे डरने की मुख्य वजह है, उनका राष्ट्र और धर्म में, धर्म के प्रति ज्यादा झुकाव। उनका उन मुस्लिम राष्ट्रों के प्रति ज्यादा झुकाव जो कहीं न कहीं हमारे स्वयं के राष्ट्र की संप्रभुता और अखंडता के लिए खतरा हैं। उनके इसी अन्धविश्वास का लाभ उठा पडोसी मुल्क हमारे यहाँ आतंकवाद और साम्प्रदायिक दंगो का ज़हर घोलते रहे हैं।

 

आज जब हम अपने वर्तमान राष्ट्रिय परिदृश्य पर नज़र डालते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि आज़ादी के समय लिए हमारे कुछ निर्णयों के दुष्परिणामों से हमारा समाज और राष्ट्र आज तक जूझ रहे हैं और आने वाले समय में यह समस्याएँ हमारे राष्ट्र की संप्रभुता और अखंडता के लिए और बड़ी चुनौती बन कर उभरने वाली हैं।

 

मौजूदा समय में उठ रही शरिया अदालत की मांग भी उन्ही कुछ ज़िहादी और धर्मांध गतिविधियों में से एक है जो धर्म विशेष को राष्ट्र के संविधान और कानून से अलग फैसले करने का हक़ प्रदान कर देगी। क्या एक ही राष्ट्र में दो प्रकार के नागरिक कानूनों का होना तर्कसंगत है? क्या यह मांग हमारे देश को नागरिक कानूनों के धरातल पर दो फांकों में विभाजित करने की साज़िश नहीं है?

 

ज्यादा विचलित करने की बात तो यह है कि तमाम मुस्लिम संगठन, और मुस्लिम बुद्धिजीवी सरकार द्वारा इस मांग के ना माने जाने पर पुनः एक अलग राष्ट्र देने की वकालत तक कर चुके हैं। अगर हम इन मुद्दों की तह में जाए तो हमे वहां वहीँ धर्मांध विचारधारा मिलेगी जिसके लिए राष्ट्र, धर्मनिर्पेक्षिता, सहिष्णुता जैसे विचार कोई मायने नहीं रखते।

 

अगर हम भारत सरकार के लिए नासूर बन चुकी कश्मीर समस्या का अध्ययन करें तो हमे पता चलेगा कि नब्बे प्रतिशत पत्थरबाज़ी की घटनायें जुम्मे की नमाज़ के बाद ही होती हैं। क्या कोई और धर्म अपने अनुयायियों को अपने ही राष्ट्र के सैनिकों के ऊपर पथरबाज़ी की सीख देगा? कदापि नहीं। और इस मसले की तह में भी वहीँ धर्मान्धता है जो सैकड़ों वर्षों से किसी न किसी प्रकार राष्ट्र को विखंडित करती आई है।

 

1857 ई० के स्वतंत्रता संग्राम में विद्रोही हिन्दु राजाओं की सेनाओं ने, बहादुर शाह ज़फर को अपना राजा मान अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की। क्या वो बहादुर शाह ज़फर के पूर्वजों के द्वारा हिंदुओं पर किये गए कृत्यों और ज़ुल्मों को भूल गए थे? कदापि नहीं। बल्कि यह उनकी धर्मनिर्पेक्षिता थी जिससे उन्होंने एक मुसलमान को अपना राजा माना था।

 

अगर हम भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को पढ़े तो हमें समझ आता है कि पुरे आंदोलन में मुस्लिम लीग का एकमात्र लक्ष्य मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र की मांग ही रही, उनके लिए भारत की स्वतंत्रता दोयम दर्जे की बात थी। कहीं न कहीं यह हमारे राष्ट्रपिता गांधी की राष्ट्रहित से ज्यादा, स्वयं के व्यक्तित्व को बड़ा करने की कोशिश ही थी जिसने एक नहीँ बल्कि सैकड़ों हिन्दू-मुस्लिम दंगों को जन्म दिया। गंगा-जमुनी तहज़ीब के नाम पर हिंदुओं की भावनाओं और अधिकारों को ताक पर रखने की परम्परा इन्ही के सिद्धान्तों की देन है। ‌

 

वर्तमान समय में राष्ट्रहित और स्वयं के हित के बीच टकराव की यह समस्या सिर्फ मुसलमानो तक सिमित नहीं रही है। अभी कुछ दिनों पहले जिस प्रकार ईसाई मिशनरियाँ, विदेशों से आ रही गैरकानूनी फंडिंग बंद हो जाने पर मौजूदा सरकार का मुखर रूप से विरोध कर रही थी, वह भी कहीं न कही उनके धर्म प्रेम को राष्ट्रहित से ज्यादा महत्वपूर्ण बताने के लिए काफी था।

 

विदेशों से आ रहे गैरकानूनी धन का इस्तेमाल जिस प्रकार देश में धर्म परिवर्तन और तमाम देश विरोधी गतिविधियों में किया जा रहा था, उससे शायद ही कोई अनजान हो। परन्तु कंही न कंही सबकुछ जानते हुए भी सहिष्णु और धर्मनिरपेक्ष बने रहने का जन्मजात गुण ही है जो हिंदुत्व को राष्ट्रवादी और इन अवसरवादी धर्मों से अलग श्रेणी में खड़ा करता है। ‌

 

धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता इत्यादि ऐसे कर्तव्य है जिनकी डोर बहुत ही पतले धागों द्वारा सभी धर्मों में आपस में जुडी होती है। जब भी किसी धर्म विशेष की परिभाषा राष्ट्रहित से ज्यादा महत्वपूर्ण होने लगती है, ऐसी स्थिति में यह धागा टूट जाता है। उस परिस्थिति में सरकार का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह उस धागे को पुनः ठीक करने का प्रयास छोड़, उस धर्मविशेष की मानसिकता पर अंकुश लगाए, यहीं उस राष्ट्र और वहां के बाकी धर्मों के लिए हितकर होता है।क्योंकि दुबारा उस टूटे धागे को जोड़ने की कोशिश में उसमें गाँठ पड़ जाती है, और यह गाँठ आजीवन बनी रहती है। ‌

 

आज की हमारी यह समस्याएं गांधी-नेहरू के उन्ही सिद्धान्तों की दें है, जिनमे उन्होंने दूसरे समाज विशेष की जरूरतों को कुचलकर बार-बार मुसलमानों और उस समाज के बीच के टूटे हुए धागे को गाँठ से जोड़ने पर बल दिया, ना कि उस धर्मांध मानसिकता पर लगाम लगाने पर, जो तब एक अलग राष्ट्र लेकर भी शांत नही हुयी और आज भी समय समय पर एक काले सर्प की भाँती अलग राष्ट्र की मांग का ज़हर उगलती रहती है।

 

अब समय आ गया है कि सरकारें अपने सिद्धान्तों को बदले और किसी भी धर्म विशेष की ऐसी ज़िहादी मानसिकता को कड़े से कड़े फैसले लेकर अंकुश लगाने का कार्य करें। एक उज्जवल और विकसित राष्ट्र के निर्माण के लिए सबसे जरूरी होता है, वहां के लोगों में राष्ट्र प्रथम की भावना का विद्यमान होना।

 

Featured image courtesy: The Counter Jihad Report.

 

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Yashpal Singh

राष्ट्रोदय के लिए प्रयासरत एक युवा।
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